Sunday, December 5, 2010

Gandhi jee ka Dharam Darsan

महात्मा गांधी धर्मदर्शन
गांधीजी ने धर्म की व्यापक व्याख्या की है, उनका धर्म किसी सीमा में ना बंध कर विष्व बंधुत्व का संदेष लेकर आता है। उनका धर्म किसी जाति या संप्रदाय का धर्म नहीं है बल्कि वे तो दुनिया के सभी धर्मो का सम्मान करते थे। उनका मानना था दुनिया का ऐंसा कोई भी धर्म नहीं जिसमें अच्छी बातें ना लिखी हों। उन्होंने बहुत से धर्मों से अच्छी बातें ले कर किसी नये धर्म को बनाने का प्रयास भी नहीं किया। उनका धर्म तो आत्मबोध है, आत्मज्ञान है। रोमन रोलैंड के शब्दों में ‘‘ गांधीजी की क्रियाओं को समझने के लिए यह स्पष्टतः समझ लेना होगा कि गांधीवाद दो मंजिला एक विराट अट्टालिका की भांति है। इसके नीचे धर्म की एक ठोस बुनियाद या नींव है। इस विराट तथा अटल नींव पर उनके राजनीतिक एवं सामाजिक आंदोलन आधारित है। उन्होंने स्वयं ‘यंग इंडिया’ में इस बारे में लिखा था कि ‘‘ अपने सार्वजनिक जीवन के आरम्भ से ही मैनें जो कुछ कहा है और जो कुछ किया है उसके पीछे एक धार्मिक चेतना और धार्मिक उद्देष्य रहा है। राजनीति जीवन में भी उनके धार्मिक विचार उनके राजनीतिक आचरण के लिए पथ प्रदर्षक बने रहे। वे कहते हैं ‘‘ मैं बहुत से धार्मिक व्यक्ति जिनसे में मिला हूँ, जो छùवेष में राजनीतिज्ञ हैं, किंतु मैं, जो कि राजनीतिज्ञ का वेष रखता हूँ, हृदय से धार्मिक हूँ।’’ उनके अनुसार धर्म पालन का यह अर्थ नहीं है कि संसार के समस्त कार्यों एवं कर्तव्यों को छोड़कर ईष्वर की आराधना में लग जाया जाए एवं समस्त धार्मिक नियमों का अक्षरषः पालन किया जाए। उन्हीं के शब्दों में ‘‘ मानव क्रिया से अलग मैं किसी धर्म को नहीं जानता। धर्म ही समस्त क्रियाओं को नैतिक आधार प्रदान करता है।

भारत के स्वतंत्रता संग्राम का नेतृत्व करते हुए भी गांधी जी ने कभी धर्म एवं अहिंसा का मार्ग नहीं छोड़ा, चौरी-चौरा की घटना के बाद उन्हें लगा कि उनका आंदोलन अहिंसा के मार्ग से भटक रहा है तब उन्होनें अपना आंदोलन स्थगित करना उचित समझा। महात्मा गांधी यह भली भांति जानते थे कि अहिंसा हिंसा की अपेक्षा कई गनी अच्छी होती है। वे यह भी मानते थे कि दंड की अपेक्षा क्षमा अधिक श्क्तिषाली होता है। गांधी जी के अनुसार ‘‘मेरा धर्म वह धर्म है जो मनुष्य के स्वभाव को ही बदल देता है, जो मनुष्य को उसके आंतरिक सत्य से अटूट सम्बंध में बांध देता है और हमें हमेषा पाक-साफ रखता है। उनके अनुसार धर्म की सिद्धि माला जपने या चार पहर मन्दिर या गिरजाधर जाने से नहीं, बल्कि प्रेम और सत्य के मार्ग पर चलते हुए सेवामय जीवन व्यतीत करने से ही की जा सकती है। सबसे प्रेम करो, सबके लिए जियो और मरो, सत्य की निष्काम खोज में सदा तत्पर रहो, अपने को पहचानों ओर आत्मबोध द्वारा अपनी शक्ति को जागृत करो तथा अहिंसात्मक आदर्षों का पालन करो, गांधीजी के धर्म के यही मूल तत्व है।

जब वे विद्यालय में थे ,तभी एक बार धर्म को लेकर उनके मन में भारी उथल-पुथल मची थी, हिन्दू धर्म की गिरती जा रही स्थिति से भी वे चिंतित हुए थे। उनका हिन्दू धर्म में गहरा विष्वास था, उनका विष्वास ना तो ग्रंथों में उलझे पंडितों की तरह था ना ही अंध भक्ति वाले भक्तों की तरह। उनकी धर्मचेतना तो उन्हीं के विवके और तर्कों से एक साथ नियंत्रित होती रही। वे कहते हैं-‘‘ धर्म को लेकर मैं शोरगुल नहीं मचाना चाहता। मुझसे यह भी नहीं हो सकता कि पवित्र नामवाला होने के कारण मैं किसी पापी को क्षमा कर दूं। मैं किसी को तब तक अपने साथ नहीं घसीटूंगा, जब तक वह अपने ही तर्कों से मेरी बात न मान ले। मैं पुराने से पुराने शास्त्र की पवित्रता को भी अस्वीकार करने को तैयार हूँ, अगर वह मेरे तर्कों से गृहण-योग्य प्रमाणित न हो।’’

वे स्वधर्म के साथ अन्य सभी धर्मों का समान आदर करते थे उन्हीं के शब्दों में ‘‘ मैं यह नहीं मानता कि सिर्फ वेद ही पवित्रतम ग्रंथ है, मुझे लगता है कि बाइबिल, कुरान और जिंदावेस्ता भी समान रूप से पवित्रता प्रेरित है। हिंदू धर्म चरमपंथियों के लिए नहीं है , उसमें संसार के सभी महान धार्मिक पुरूषों की पूजा को स्थान प्राप्त है।

हिन्दू धर्म से अपने अनुराग का उन्होनें अपनी पत्नी के उदाहरण के माध्यम से स्पष्ट किया, उन्होनें माना कि हिन्दू धर्म में भी दोष धुस आये हैं, फिर भी वह मुझे प्रिय है क्योंकि वह मेरा अपना है। उन्होनें कहा जिस प्रकार मेरी पत्नी मेरे मन को स्पंदित कर सकती है, संसार की किसी दूसरी स्त्री के लिए संभव नहीं, यह नहीं कि उसमें कोई खामी नहीं है, हो सकता है जितना में देखता हूँ उससे जादा खमियों उसमें हों, लेकिन उसके साथ बंधा मेरा बंधन अक्षय है। ठीक इसी प्रकार हिन्दू धर्म के विषय में भी कह सकता हूँ , तमाम त्रुटियों और सीमाओं के बावजूद भी मुझे प्रिय है।
उन्होनें जिन मूल सत्यों को स्वीकार किया है, उसकी सूची उन्होनें सन् 1921 के 6 दिसंबर को लिखे लेख के माध्यम से प्रस्तुत की थी। लेख के माध्यम से उन्होनें अपने धर्म-दर्षन को सबके सामने रखा है-

1. वेद, उपनिषद, पुराण और हिंदु शास्त्रों के अंतर्गत जो कुछ है, उन पर मेरा विष्वास है, अतः अवतारों पर और पुनर्जन्म पर भी मुझे विष्वास है।

2. मैं वर्णाश्रम धर्म पर केवल उसके मूल वैदिक अर्थ में ही विष्वास करता हूँ, वर्तमान और सब लोगों के लिए मान्य किसी अन्य अर्थ में नहीं।

3. मेरा विष्वास है कि गोरक्षा उचित है।

4. मूर्तिपूजा में मुझे विष्वास नहीं।

गांधीजी हिन्दू एवं इसाई धर्म की समानताओं को जानते थे। उन्होनें अपनी पुस्तक ‘ इथिकल रिलीजन’ के अंत में ईसामसीह का वचन उद्धृत किया है। उन्होंने माना था कि सविनय अवज्ञा की पहली झलक उन्हें पर्वत के ऊपर से दिये गये ईसा के धर्मोंपदेष में मिली थी।

विष्व इतिहास एवं सम्यता को प्रभावित करने वाले इस संत पर टॉलिस्टाय, प्लेटो, रस्किन, एवं थोरो के विचारों का गहरा प्रभाव रहा है उन्होनें एडवर्ड कार्पेटर की रचनाएं भी पढ़ी, तभी उनकी विचार धारा में युरोप एवं अमेरिका के दर्षन का भी समावेष हो सका।

उनने अपने धर्म की व्याख्या स्वयम् की ‘‘ मेरा धर्म तो वह धर्म है जो कि मनुष्य के स्वभाव को ही बदल देता है, जो मनुष्य को उसके आंतरिक सत्य के अटूट सम्बंध में बाँध देता है। जो मनुष्य को उसके आन्तरिक सत्य से अटूट सम्बन्ध में बांध देता है और जो सदैव पाक-साफ करता है।

गांधीजी के अनुसार धर्म सबसे प्रेम करना सिखाता है, न्याय तथा शांति की स्थापना के लिए स्वयम् तक के बलिदान की प्रेरणा देता है, धर्म निर्मल का बल तथा सबल का मार्गदर्षक है।

वर्णव्यवस्था पर अपने विचारों को रखते हुए वे कहते है ‘‘आनुवांषिक कर्तव्य का नियम शाष्वत है और उसे बदलने के प्रयत्न का अर्थ होगा चरम अवस्था का आव्हान करना। वर्णव्यवस्था मनुष्य के स्वभाव में घुला-मिला है, हिंदु धर्म ने उसे विज्ञान के स्तर पर पहुंचा दिया है।’’

रोमां रोला ने ‘‘महात्मा गांधी के जीवन दर्शन’’ में गांधीजी के जीवन दर्शन एवं टॉल्यटॉय के जीवन दर्शन की तुलना करते हुए गांधीजी को श्रेष्ठ बताया है वे लिखती हैं ‘‘ हिंदुत्व के छद्म वेश में उनका वास्तिविक हृदय उदार क्रिश्चियन का है। टॉल्सटॉय यदि कुछ और दयालू होतु, कुछ और शांत तथा सार्वजनिक अर्थ में कुछ और स्वाभाविक रूप से क्रिश्चियन होते तो वे गांधी होते।’’

समकालीन विचारकों में गांधीजी अगस्त कामटे 1798-1857, हरबर्ट स्पेन्सर 1820-1902, इमाईल दुर्खीम 1858-1917, कार्लमार्क्स 1818-1883, थॉर्सटीन वेब्लीन 1857-1929, विलफ्रेड परेटो1848-1923, मैक्स वेबर 1864-1920, चार्ल्स कुले 1864-1929, पिटिरिम सोरोकिन 1889-1971, टालकॉट पारसन्स 1902 की श्रेणी में शामिल हैं । गांधीजी की विचार धारा सिर्फ कागजों अथवा सिद्धांत तक सीमित नहीं रही उन्होंने अपने सत्य के प्रयोग स्वयं अपने पर ही किये। उनके द्वारा स्थापित फिनिक्स, टॉलस्टॉय एवं साबरमती आश्रम उनकी सामाजिक अध्ययन की प्रयोगशाला बनी।

वे सभी धर्मों का हृदय से सम्मान करते थे उनके अनुसार सभी धर्मों का लक्ष्य एक है अर्थात ‘परम सत्य’ की प्राप्ति, चाहे हम परम सत्य की चाहे जो भी व्याख्या क्यों ना करें। सभी धर्मों का लक्ष्य समान है भले ही लक्ष्य तक पहुंचने के मार्ग प्रथक-प्रथक क्यों ना हो। अनावश्यक धर्मपरिवर्तन को वे पसंद नहीं करते थे वे कहते है ‘‘ धर्म परिवर्तन के लिए दूसरों पर दबाव डालना अन्याय है।

ईश्वर पर उनकी अटूट श्रद्धा रही वे कहते है ‘‘ ईश्वर से मेरा विश्वास गया और मैं मरा। हरिजन पत्रिका में उन्हांेनें लिखा ‘‘ मेरे लिए ईश्वर सत्य और प्रेम है, ईश्वर आचार और नैतिकता है, ईश्वर प्रकास एवं जीवन का स्त्रोत है, परन्तु इतना सब होते हुए भी वह इन सबसे ऊपर और सबसे परे है। ईश्वर अन्तरात्मा है यहां तक की ईश्वर नास्तिक की नास्तिकता भी है।’’,

‘‘ईश्वर वर्णनातीत, रहस्यमयी ऐसी शक्ति है जो कि सर्वव्यापक है, मैं उसे अनुभव करता हूं, यद्यपि मैं उसे देख नहीं सकता। इस अदृश्य शक्ति का हम अनुभव कर सकते है किंतु प्रमाण नहीं दे सकते। दूसरे शब्दों में ईश्वर बाहरी तत्व नहीं यह हृदय की अनुभूति है। अपनी आत्म कथा की प्रस्तावना में गांधीजी लिखते है ‘‘ परमेश्वर की व्याख्याएं अनगिनत हैं, क्योंकि उसकी विभूतियां भी अनगिनत है। ये विभुतियां मुझे आश्चर्यचकित करती है। क्षण-भर के लिए मुझे मुग्ध भी करती है, किंतु मैं पुजारी तो सत्य रूपी परमेश्वर का ही हूँ।

यूरोपिय देशों ने धर्म की आड़ में विश्व युद्ध किया एवं पूरी दुनिया को उसमें झोंक दिया , धर्म एवं प्राजातिय श्रेष्ठता के लिए लड़े गये इस युद्ध से छुब्द्ध होकर उन्होनें कहा ‘‘ आज की यूरोपीय सभ्यता पर जिन शैतानी प्रकृति का राज है, पिछले युद्ध में उसी का परिचय मिला। विजयी पक्ष ने धर्म के नाम पर जो कुछ किया, उससे मनुष्य की नीति-संबंधी सारी धारणाएं चूर-चूर हो गयी। ’’1908 में ‘हिन्द स्वराज’ में भी उन्होंने आधुनिक सभ्यता को एक ‘महान पाप’ घोषित किया था।

गांधीजी के ऋषि सुलभ भाव से प्रभावित हो रवीन्द्रनाथ जी ने उन्हें टॉल्सटॉय से भी अधिक प्रभामंडित माना था। 10 अप्रेल 1921 को रवीन्द्रनाथ जी ने लंदन से लिखा था- ‘‘ महात्मा ने अपने सत्य-प्रेम के द्वारा भारत का हृदय जीत लिया है, वहाँ हम सभी उनके सामने हार मानते हैं। इस सत्य की ष्षक्ति को हम देख सके, इसलिए आज हम लोग कृतार्थ हैं।

गांधी जी के बारे में राधाकृष्णन ने लिखा था ‘‘ गांधीजी एक नितांत धार्मिक पुरूष हैं। उन्हें मानवता की एकता में अटूट विश्वास है। हम लोग चाहे जिस जाति, धर्म या देश के हों , हम सभी उसी परमेश्वर की सन्तान हैं। प्रत्येक धार्मिक पुरूष सारी मानवता के साथ स्नेह-सम्बन्ध में विश्वास रखता है।

गांधीजी ने सत्य को ही ईश्वर माना, सत्य से बढ़कर कुछ नहीं है। सत्य की प्राप्ति ही मनुष्य की प्रथम साधना होनी चाहिए एवं सत्याग्रह आत्मा की शक्ति है। सत्य की प्राप्ति ही गांधीदर्शन का मूल मंत्र है। निश्चित रूप से गांधीवाद को आधार धर्म ही है किंतु गांधीजी का धर्म किसी संकीर्ण मानसिकता से उपर उठ कर विश्वबंधुत्व का आव्हान करता प्रतीत होता है। उन्होने अपने दर्शन से धार्मिक संकीर्णता का दूर किया है एवं धार्मिक सहीष्णुता का मार्गप्रशस्त्र किया है। बदले वैष्विक परिदृष्य में धार्मिक कट्टरता का बुखार सरचढ़कर बोल रहा है, एंसे विकट समय में गांधीजी के विचार और भी अधिक प्रासांगिक होते जा रहे है।
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- शरद चन्द्र गौड़
(सदर्भ ग्रंथ- महात्मा गांधी का जीवन दर्शन रोमां रोला नोबल पुरस्कार से सम्मानित, महात्मा गांधी का शिक्षा दर्शन प्रो.सत्यमूर्ति, एपरेन्टिस आफॅ महात्मा फातिमा मीर, सामाजिक विचार धारा कॉम्ट से गांधी तक रवीन्द्र नाथ्)

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