Sunday, November 21, 2010

बस्तर दशहरा

दशहरा पर्व राजीव रंजन प्रसाद के साथ [संस्मरणात्मक आलेख] -- शरद चन्द्र गौड़

बस्तर दशहरे को बचपन से देखता आ रहा हूँ, मुझे याद है जब हम बस्तर आये थे तब मैं पाँचवीं कक्षा मैं पढ़ा करता था। जगदलपुर की मेन रोड पर ‘सुन्दर किराना दुकान’ के ऊपर हम लोग भाड़े पर रहा करते थे। सामने था स्टेट बैंक, उसकी बगल में बीरबल होटल एवं होटल के ऊपर ही चच्चा-चच्ची रहा करते थे। चच्चा तो पहले ही गुजर गये, दो दिन हुए चच्ची भी ने भी विदा ले ली, असगर अली जी के इस परिवार के सदस्यों के साथ हम लोगों का एक परिवार सा संबंध रहा। वहीं बीरबल होटल के बगल का खाली पड़ा स्थान नीलम होटल की याद दिलाता है। हमारे घर के बाजू में सराफ जी की सोने-चांदी की दुकान हुआ करती थी अब वे क्वालीटी लेदर के नाम से नामी जूते-चप्पल की दुकान चलाते है, उन्हीं के बाजू में अनिल मथरानी का जनता होटल जहाँ हम लोग हाफ चाय पी कर दो घण्टे बैठा करते थे अब खाली प्लाट में बदल गया है। उसी लाईन मैं प्रताप भैया भी रहते हैं जो कि एक ख्याती प्राप्त वकील हैं, उन्हीं के सामने ध्रुवनारायण पाण्डे जी जोकि नोटरी हैं। यही वह मेन रोड है जिस पर बस्तर दशहरे के ‘‘बाहर रहनी’’ का रथ अपनी लम्बी यात्रा पर आदिवासी समुदाय द्वारा खींच कर ‘कोम्हड़ाकोट’ ले जाया जाता है। रथ चोरी की परम्परा में सिर्फ बास्तानार के माड़िया ही शामिल होते हैं, दूसरे दिन रथ वापिसी पर हजारों की भीड़ के बीच सभी आदिवासी समुदाय के लोग रथ खींचते हैं।

दशहरे की रात बस्तर दशहरे पर बना नया रथ प्रथम बार चलता है (शेष दिनों पुराने रथ की परिक्रमा होती है) गोल बाजार की परिक्रमा कर दंतेश्वरी मंदिर के सिंह द्वार पर आ खड़ा हो जाता है । हजारों या कहें लाखों श्रद्धालू, पर्यटक , इतिहास एवं संस्कृति में रूचि रखने वाले लोग अपने-अपने एंगल से इसे देखने एकत्रित होते हैं । 10 साल की उम्र से इसे देखना शुरू किया मैनें, तब से लगातार इसे देख रहा हूँ, वही भीड़, वही उत्साह, वही परम्पराओं का निर्वहन । सभ्यता की कसौटी पर पराम्पराओं की बली नहीं चढ़ाई जा सकती, यह तो कोई ’जापान’ वासियों से पूँछे जो कि एक विकसित सभ्यता के साथ अपनी सांस्कृतिक विरासतों को संजोकर रखे हुए हैं।

’राजीव रंजन’ जी के साथ इस साल बस्तर दशहरे को देखने का एक नया ’एंगल’ मुझे मिला । ’बस्तर एक खोज’ को लिखने के पूर्व मैनें कई दशहरे पर्यटक के एंगल से देखे थे, मैं हमेशा यही सोचा करता था वही लिखूँ जो एक पर्यटक चाहता है, मैनें सैंकड़ों पर्यटकों के साथ साक्षत्कार किया, जगदलपुर में भी एवं चित्रकोट, तीरथगढ़ जाकर भी । मुझे यही लगा ’पर्यटकों’ को संक्षिप्त किंतु प्रमाणित जानकारी दी जानी चाहिए, इसी चाह नें मुझे बस्तर पर रचना लिखने की प्रेरणा दी।

’राजीव रंजन’ जी ने जब मुझे फोन पर कहा की वे मेरे साथ बस्तर दषहरा देखेंगे, तभी मुझे अहसास हो गया था, कि एक नये एंगल से हम बस्तर दशहरे को देखने जा रहे हैं, मुझे पता था राजीव जी अपने उपन्यास के माध्यम से बस्तर के इतिहास को जीवित करने वाले हैं एवं मैं एक महत्वपूर्ण रचना का साक्ष्य बनने जा रहा हूँ। मुझे ये भी पता था आगामी 05 दिन मुझे सिर्फ और सिर्फ इतिहास कार की भूमिका में रहना होगा । मैं विज्ञान का विद्यार्थी हूँ इतिहास कार नहीं , ना ही मैंने ऐसा कोई षौध ही किया जो मुझे इतिहास कार बना दे, हाँ इतिहास पढ़ा जरूर है, डा.के.के.झा एवं लाला जगदलपुरी जी से सतत् संपर्क ज्ञान तो बढा़ता ही है , हम दोनों उनसे भी मिलने जा रहे हैं ।

काकतीय राजवंश (भंज वंश कहना उचित होगा) के परंम्परागत् उतराधिकारी ’कमलदेव’ से राजशी पोषाक में मिलना इतिहास को पुनः जीवित करने जैसा लगा पर क्या इतिहास में जिया जा सकता है ? एतिहासिक पात्रों का मंचन मुझे संभव लगता है, फिल्मों के माध्यम से भी इतिहास के जीवांत दृष्य दिखाये जा सकते हैं। लेकिन बस्तर के राजमहल में परंपरागत उत्तराधिकारी ’कमलदेव’ से मिलना मानों एसा लगा कि हम अभी भी राजवंश की खुमारी से मुक्त नहीं हो पाये है। एशवर्यशाली सभा कक्ष, दीवालों पर लगे वंशजों के बड़े-बड़े चित्र, जंगली भैंस एवं बारहसिंगे के विषाल काय सींग, अन्तिम बस्तर नरेष प्रवीर चन्द्र भंजदेव की प्रकाश से नहाई हाथ से बनी पेंटिग, तीन बड़े राजसी आसन, जिसके मध्य में बैठे ’कमलदेव’ एवं जमीन पर रखी थाली जिसमें रखे हैं रूपये-चिल्हर इत्यादि ।

रायपुर से आयी एक महिला पर्यटक राजा जी से बतिया रही थीं, आदिवासी समूदाय बारी-बारी से बिना ’राजन’ से बात किये, पाँव छू-छू कर कुछ रूपये या पैसे जो उनकी परिस्थति है उस अनुसार थाली में डाल रहें थे, उनकी राजन से बात करने की चाहत नहीं थी वह तो सिर्फ ’राजभक्ति’ से बंधे थे। राजन का गौरवर्ण चेहरा राजकीय पोषाक, लम्बे-लम्बे बाल। राजीव ने मुझसे कहा हमारी बारी कब आयेगी, फोटो खींचते हुऐ मैंने कहा जाकर बात करना शुरू कर दो नहीं तो बारी तो कभी नहीं आयेगी । राजीव रंजन जी ने राजन् कमलदेव से बात करना आरंभ किया, वो उनका दो मिनट का इंटरव्यू लेना चाहते थे ।

राजा ने समय के कमी का बाहना किया, बात-चीत तो 20 से 25 मिनिट हो गई, लेकिन दो मिनिट का साक्षात्कार संभव नहीं हो पाया। रायपुर से आई पर्यटक रेखा जी जिनका बाहर आने पर हमने नाम जाना, हमारे साथ ही बाहर निकली । हम राजमहल के बाहर के हिस्से में भी साथ ही घूमने गयें, उस हिस्से में एक निजी नर्सिंग कालेज संचालित होता है।

राजीव रंजन जी के बातों का सूत्र अपने हाथों में लेते हुए कहा दिल्ली में बस्तर विषेषज्ञों की बाड़ सी आ गई है, दो दिन बस्तर घूमकर बने बस्तर विषेषज्ञ बस्तर की समाजिक आर्थिक विरासत के ट्रस्टी बन गये हैं। मैंने कहा क्या करें हम बस्तर के रचनाकार जब अपनी बातों को दिल्ली के मंच पर नहीं रखेंगे, तब कोई तो यह कार्य करेगा ही, फिर भी यह तो कहूँगा ही बस्तर पर लिखना है तो बस्तर में आकर रहें यहाँ के जीवन एवं समस्या को समझें नहीं बल्की आत्मषात करें फिर लिखें। वेरियर एल्विन ने आदिवासी संस्कृति को समझने के लिए करंजिया में आश्रम बनाया, आदिवासियों के बीच वे रहे एवं उनकी सेवा की फिर कहीं जाकर अपनी अमर रचनाओं का सृजन किया।


बड़े-बड़े बुद्धीजीवी जिनका बस्तर से कोई सरोकार नहीं, पर्यावरण एवं संस्कृति के ठेकेदार बन बस्तर के विकास में रोड़ा अटका रहें हैं । सिर्फ संस्कृति की रक्षा एवं पर्यावरण संरक्षण को आधार बना बस्तर को विकास की मुख्यधारा से पृथक नहीं रखा जा सकता । प्रो.यशपाल जैसे विद्वान जिनकों पढ़कर हम बड़े हुए हैं जब बस्तर आकर बस्तर के विकास को रोकने का माध्यम बनते हैं तब दुख तो होता ही है। अरबों रूपये के लोह अयस्क के खनन के बाद भी बस्तर वासियों को लिए ‘हीराकुण्ड’ एवं ‘समलेष्वरी’ टेªन के लिए आंदोलन करना पड़ रहा है। जगदलपुर से रायपुर रेललाईन तो शायद कभी नहीं बन पायेगी। मैं बस्तर के इतिहास, संस्कृति, पर्यटक पर अक्सर लिखा करता हूँ, फिर भी सांस्कृतिक धरोहर के नाम पर विकास को अवरूद्ध करने के पक्ष में नहीं हूँ। विकास एवं सांस्कृतिक विरासत का संरक्षण विरूद्वार्थी षब्द नहीं है यह तो स्वीकार करना ही होगा फिर हम क्यों कर इनका एक दूसरे का विरोधी बनाने पर तुले हुए हैं, सांस्कृतिक एवं एतिहासिक विरासत भी विकास का माध्यम बन सकती है। औद्योगिक विकास में सामाजिक पक्षों की उपेक्षा संभव नहीं है। औद्योगिकीकरण वाकई समाज के विकास के लिए हो तब उसका विरोध समाज कभी नहीं करेगा । क्या ऐसा हो रहा है ? बस्तर दशहरा पर्व को देखने हर वर्ष हजारों पर्यटक आते हैं किन्तु स्थानीय समुदाय को बस्तर पर्यटन से लाभ होता दिखाई नहीं पड़ता, इन को पर्यटन उद्योग से जोड़ा जाना जरूरी है ताकि उद्योगों का लाभ पूंजिपति वर्ग के साथ उन्हें भी मिल सकें।

1876 में भेरम देव के शासन काल से प्रारंभ ‘‘मुरिया दरबार’’ के साथ बस्तर दशहरे का समापन होता है । आदिवासी समूदायों के असंतोष को शांत करने के लिए इसकी शुरूवात की गई थी, राजतंत्र के कुछ नजदीकी अधिकारियों से आदिवासियों की नाराजगी ने उन्हें बलवा करने को प्रेरित कर दिया परिणाम स्वरूप आरापुर गोली काण्ड हुआ, एवं आदिवासियों ने दो माह तक जगदलपुर की घेरा बन्दी कर दी तब से दषहरे के अवसर पर ‘‘मुरिया दरबार’’ दरबार का आयोजन किया जाता है। अब बस्तर की इस परम्परागत संसद् में मूख्यमंत्री, सांसद, विधायक, महापौर सहित अन्य नेता एवं प्रशासनिक अधिकारी शामिल होतें है। अब तो इस खुली संसद् का उपयोग महज खाना पूर्ती के लिए ही किया जाता है ।

अपने एतिहासिक दशहरे, जैवविवधता एवं जलप्रपातों के लिए जाना जाने वाला बस्तर अब लाल आतंक के साये में सिसकियाँ ले रहा है। अब तो लोग बस्तर को सिर्फ नक्सल प्रभावित अंचल के रूप में ही जानते हैं...................

बस्तर दशहरा

बस्तर  दशहरा
बस्तर अंचल के दशहरे का संबंध रावण वध से नहीं है। इसकी जन स्वीकृति का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि यह 75 दिनों तक चलता है। एवं इसमें शामिल होने बस्तर के कोन-कोने से आदिवासी आते हैं। बस्तर दशहरे का रूवरूप बस्तर के राजघराने की परंपराओं एवं जगन्नाथपुरी की रथ परिक्रमा परंपरा से जुड़ा हुआ है। वहीं माँ दण्तेश्वरी के साथ ही बस्तर के सभी देवी देवताओं के छत्रों की इस अवसर पर उपस्थित इसे जनस्वीकृति एवं धार्मिक स्वरूप प्रदान करती है। एक लोक उत्सव के रूप में इसकी ख्याति का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि इस अवसर पर देश विदेश के हजारों पर्यटक जगदलपुर आते हैं। पूर्व बस्तर राज्य के परगनिया माँझी, माँझी, मुकद्दम और कोटवार आदि ग्रामीण आज भी दशहरे की व्यवस्था में समय से पहले मनोयोग से जुट जाया करते हैं। भूतपूर्व बस्तर राज्य में मंदिर व्यवस्था की देख रेख में दशहरा मनाया जाता था। हर गांव से खाने-पीने की सामग्री जुटाई जाती थी एवं इस सामग्री को कोठी के कोठिया को सोंप दी जाती थी। समय एवं परिस्थियों के बदलने पर षासन ने जनभावनाओं का संम्मान करते हुए दशहरा कमेटी के माध्यम से इसे मूर्त रूप दिया है। कहा जात है कि चालुक्य नरेष पुरूशोत्तम देव ने एक बार जगन्नाथपुरी तक पैदल यात्रा की एवं जगन्नााथ मंदिर में एक लाख स्वर्णमुद्रयें एवं आभूशंण भेंट किये। भगवान जगन्नाथ ने प्रसन्न होकर वहाँ के पुजारी को स्वप्न में आकर राजा पुरूशोत्तम देव को रथपति घोशित कर दिया। तभी से परंपरागत रूप से दशहरे एवं गोंचा पर्व के समय रथ चलाने की परंपरा है। राजषाही ेके समय इन रथों पर राजा बैठा करते थे। बदली परिस्थतियों में अब दण्तेश्वरी मंदिर जगदलपुर के पुजारी रथ पर बैठते हैं । बस्तर राजवंश से जुड़े परिवारों एवं राजमहल की सक्रिय भागीदारी बस्तर दशहरे को राजषाही रूप प्रदान करती है।

हरियाली अमावस्या के दिन पाटजात्रा पूजा के लिए ठुरलू खोटला लकड़ी बिलोरी ग्राम के 65 परिवार के सदस्य माजकोट वन क्षेत्र से लाते हैं। यह रथ निर्माण के लिये प्रथम लकड़ी होती है। प्रत्येक धर से एक-एक सदस्य जंगल जाता है एवं ठोस तने वाले साल वृक्ष की लकड़ी काटता है। पाट जात्रा से दो दिन पूर्व लकड़ी काटी जाती है एवं जंगल से ग्राम तक कंधे पर रख कर लाई जाती है। गांव से षहर बिना बैेल की बैलगाड़ी का उपयोग परंपरा अनुसार ठुरलू खोटला लकड़ी लाने में किया जाता है।
काछनगादी-
बस्तर दशहरे का प्रारंभ काछन गादी की परंपरा से होता है। इस दिन मिरगान जाति कि एक क्वांरी कन्या पर काछन देवी आती हैं। यह कार्यक्रम अष्विन मास की अमावश्या के दिन आयोजित होता है। पहले राजा गाजे-बाजे एवं जलूस के साथ पथरागुड़ा के भंगाराम चौक पर स्थित काछिन गुड़ी आते थे किंतु अब इस परंपरा का निर्वाहन दण्तेश्वरी मंदिर के पुजारी करते है। मिरगान जाति की क्वांरी कन्या पर जब काछन देवी आ जाती हैं तो उसे कांटो की गद्दी पर बिठा कर, सिरहा (पुजारी) द्वारा झुलाया जाता है। देवी की पूजा अर्चना कर दशहरा मनाने की स्वीकृति प्राप्त की जाती है। काछिन देवी के प्रसाद को उसकी स्वीकृति मान कर बस्तर दशहरे के समारोह की षुरूआत होती है।
जोगी बिठाई-
अश्विनी शुक्ल 1 को स्थानीय सीरासार (सिरहासार) में जोगी बिठाई की रस्म पूरी की जाती है। कहा जाता है कि दशहरे का कार्यक्रम निर्वघ्न चले किसी प्रकार की परेशानियां ना आयें इसी कामना के साथ हल्बा समाज का एक आदमी सीरासार भवन के मध्यभाग में बनाये गये गङ्ढे में दशहरे की समाप्ती तक लगातार नौ दिनों तक योगासन की मुद्रा में बैठता है। जोगी इस बीच सिर्फ फलाहार करता है।जोगी बिठाई के समय बली देने का भी रिवाज है।
रथ परिक्रमा-

जोगी बिठाई के दूसरे दिन से रथ परिक्रमा शुरू हो जाती है। पहले 12 पहियों वाला विशाल रथ चलाया जाता था किंतु चलाने में होने वाली असुविधा के कारण अब 4 चक्कों वाला रथ चलाया जाता है। कहा जाता है कि राजा पुरूशोत्तम देव को भगवान जगन्नाथ ने स्वप्न में आकर रथपथी घोशित किया था तब से ही रथ पर बस्तर राजा आरूढ़ होते हैं। किंतु अब माँ दण्तेश्वरी का छत्र ही आरूढ़ होता है साथ में मंदिर के पुजारी होते हैं। रथ को आकर्शक तरीके से फूलों से सजाया जाता है। अश्विशुक्ल 2 से अश्विशुक्ल 7 तक प्रतिदिन रथ गोलबाजार की परिक्रमा कर दण्तेश्वरी मंदिर के सिंहद्वार पर आकर खड़ा हो जाता है। इस अवसर पर गांव-गांव से अमंत्रित देवी देवताओं के छत्र एवं गाजे-बाजे आज भी दिखलाई पड़ते हैं। रथ को बढ़ी-बढ़ी रस्सियों की सहायता से स्थानीय आदिवासी समुदाय के लोग अपार श्रध्दा के साथ खींचते हैं।रथ परिक्रमा में स्थानीय हल्बा समुदाय के लोगों का विषेश महत्व होता है।
निशाजात्रा-
अश्विशुक्ल 8 दुर्गाश्टमी को निषाजात्रा का जलूस इतवारी बाजार के पूजामंडप पहुँचता है जहाँ पूजा की जाती है।
मावली-परधाव-
अश्विशुक्ल 9 को संध्या 9 बजे मावली-परघा होती है। इस अवसर पर दण्तेवाड़ा से आई माँ दण्तेश्वरी की डोली में मावली माता का स्वागत किया जाता है। मावली देवी को माँ दंतेष्वरी का ही एक रूप माना जाता है। इस प्रकार कहा जाता है कि बस्तर दशहरे को अपना आषीर्वाद देने मावली देवी के रूप में स्वयम् माँ दण्तेश्वरी उपस्थित रहती हैं। मावली माता की मूर्ती नये कपड़े में चंदन का लेप कर बनाई जाती है। मावली माता की डोली को राजपरिवार के सदस्य, पुजारी राजगुरू और अन्य श्रध्दालू दंतेष्वरी मंदिर तक पहुंचाते है। इसी दिन जोगी उठाई की रस्म भी होती है।
भीतर रैनी-
विजया दषमी के दिन भीतर रैनी एवं एकादषी के दिन बाहर रैनी का कार्यक्रम संपन्ना होता है। रथ गोलाबाजार की परिक्रमा करता है एवं इसके बाद दण्तेश्वरी मंदिर के पास आकर खड़ा हो जाता है। इस अवसर पर बली देने की भी परंपरा रही है। इसी दिन रात्रि को परंपरा अनसार रथ की चोरी कर आदिवासी कुमड़ाकोट ले जाते हैं।
बाहर-रैनी-

एकादषी के दिने राजपरिवार के सदस्य, पुजारी एवं विभिन्ना ग्रामों से आये मांझी ,मुखिया , पुजारी अपने ग्राम देवी-देवताओं के छत्रों के साथ देवी की पूजा करते हैं एवं अन्ना अर्पित कर प्रसाद ग्रहण करते हैं। फूल मालाओं, नये कपड़ों एवं झालरों से सजा हुआ रथ गाजे-बाजे के साथ लालबाग की मुख्य सड़क से होते हुए कोतवाली चौक पहुँचता है, मेन रोड , गुरूनानक चौक से होते हुए रथ पुन: दण्तेश्वरी मंदिर पहुँच जाता है। हजारों की संख्या में उपस्थित जनसमुदाय, रंग'बिरंगे कपड़ों में सजे आदिवासी इस अवसर पर विषेंश आकर्शंण का केन्द्र होते हैं।
मुरिया-दरबार-
बाहर रैनी के दूसरे दिन अश्विशुक्ल 12 को मुरिया दरबार का आयोजन स्थानीय सीरासार में किया जाता है। सही मायने में यह काकतीय राजवंषीय बस्तर के राजाओं की संसद रही है जिसमें राजा, राजगुरू एवं उनके मंत्री, सीधे विभन्ना ग्रामों से आये मांझ, मुखिया, एवं अन्य ग्राम प्रतिनिधयों से चर्चा करते थे। आज भी मुरिया दरबार के स्वरूप को प्रजातांत्रिक स्वरूप में स्वीकार किया जा रहा है। इस परंपरागत दरबार में राज्य के मुख्यमंत्री, बस्तर के सांसद, सभी विधायक भाग लेते हैं। एवं बस्तर क्षेत्र में विकास योजनाओं पर चर्चा की जाती है। बदले हुए स्वरूप में जनप्रतिनिधि बस्तर क्षेत्र के विकास के लिये अपनी मांगे मुख्यमंत्री के समक्ष रखतें हैं। इस प्रकार इस परंपरागत दरबार का एक सार्थक उपयोग बस्तर दशहरे की विषेशता है।
ओहाड़ी-
गंगामुण्डा में बनाये गये मावली माता के मण्डप से अश्विशुक्ल 13 को मावली माता को समारोह पूर्वक दण्तेवाड़ा के लिये विदा किया जाता है। इस विदायी समारोह को ओहाड़ी कहते हैं। ओहाड़ी के साथ ही बस्तर दशहरे के कार्यक्रम समाप्त हो जाते हैं
लोकउत्सव का स्वरूप ग्रहण कर चुके बस्तर दशहरे को देखने देश-विदेश से हजारों षैलानी आते हैं, इनकी चहल-पहल विभिन्ना पर्यटन स्थलों पर देखी जा सकती है। इस अवसर पर राज्य षासन की तरफ से विकास प्रदर्षनी का आयोजन किया जाता है। दशहरे के अवसर पर पहुँचे मनोरंजन पार्क भी लोगों को आकर्शित करते हैं।

कविता

कुम्हार का घडा
आज मैने घडा बनाया
घूमते हुए चाक पर
गीली मिट्टी को चढ़ा
अपनी हथेलियों और
अंगुलियों से सहेजकर

चाक पर चढ़ी
मेरे हाथों से घूमती मिट्टी
मुझ से पूछ रही थी
मेरा क्या बनाओगे
जो भी बनाओं
घड़ा या सुराही
दिया या ढक्कन
बस बेडौल नहीं बनाना

घबराहट में वह
इधर-उधर गिर जाती
और ताकती
बूढ़े कुम्हार की ओर
ये तुमने
किसे बिठा दिया चॉक पर
मेरा रूप बनाने
नौसीखिये हाथों में
ढलती मिट्टी
चिन्तित है अपने भविश्य पर
मैनें भी देखा
बूढ़े कुम्हार की ओर आस से
वह मेरी मंशा समझ गया
और उसने अपना हाथ लगा
सम्हाला मिट्टी को चॉक पर
मिट्टी में भी जीने
की आस बंधी
और संभल गयी वह चॉक पर

एक सुन्दर सा घड़ा बन गया
आज मेरे हाथ से
धूमते हुए चाक पर।

बस्तर एक खोज

बस्तर एक नजर...

दण्डकारण्य के पठार पर स्थित बस्तर अपने नैसर्गिक सौंदर्य एवं जनजातीय विविधता के लिये जाना जाता है। एक ओर जहाँ सभ्यता के प्रकाश की किरणें इसे आलिंगनबद्ध कर सुन्दर स्वरूप प्रदान कर रही हैं, वहीं सभ्यता को उसके आदिम युग में आज भी देखा जा सकता है। ऐसा लगता है मानो बस्तर एक जीवित जीवाश्म हो। 

जैवविविधता के साथ यहाँ सभ्यता की विविधता भी देखने को मिल रही है। लंगोटी पहन कर कांवर में टी.वी.सेट ले जाने के दृश्य भी यहाँ दिखाई पड़ जाते हैं।

[बस्तर राज महल का मुख्यद्वार]  

भौगोलिक क्षेत्र: बस्तर अब दण्तेवाड़ा, नारायणपुर, बीजापुर, बस्तर एवं कांकेर जिलों में विभाजित हो चुका है। किंतु जब हम बस्तर क्षेत्र की चर्चा करते हैं तब उसकी कल्पना दण्तेवाड़ा ,बीजापुर, नारायणुपर, एवं कांकेर के बिना अधूरी प्रतीत होती है। सबसे पहले बस्तर जिले को दो जिलों यथा बस्तर एवं कांकेर में विभाजित कर दिया गया किंतु बस्तर संभाग के अस्तित्व के कारण बस्तर शब्द की प्रशासनिक स्थिति बनी रही। आगे चलकर दण्तेवाड़ा जिला अस्तित्व में आया एवं बाद में बीजापुर एवं नारायणपुर जिले के अस्तित्व के बाद बस्तर जिले के पास जब 32 विकास खण्डों में से 12 विकास खण्ड ही रह गये तो बस्तर संभाग का प्रशासनिक अस्तित्व भी समाप्त हो गया। किंतु आज भी बस्तरियों के मनोमस्तिष्क में बस्तर बसा है। जाहे कितने भी प्रशासनिक फेरबदल क्यों ना हो जायें, यह बस्तर अस्तित्व में बना रहेगा।

लेखक परिचय:-


शरद चन्द्र गौड तथा कविता गौड बस्तर अंचल में अवस्थित रचनाकार दम्पति हैं। आपका बस्तर क्षेत्र पर गहरा अध्ययन व शोध है।

आपकी प्रकाशित पुस्तकों में बस्तर एक खोज, बस्तर गुनगुनाते झरनों का अंचल, तांगेवाला पिशाच, बेड नं 21, पागल वैज्ञानिक प्रमुख हैं। साहित्य शिल्पी के माध्यम से अंतर्जाल पर हिन्दी को समृद्ध करने के अभियान में आप सक्रिय हुए हैं।

बस्तर छत्तीसगढ़ के दक्षिण में स्थित है। बस्तर का प्रवेश-द्वार छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से है। बस्तर का क्षेत्रफल 39114 वर्ग किलोमीटर हैं एवं यह केरल प्रान्त से भी बड़ा है। इसकी सीमायें पूर्व में उड़ीसा, पश्चिम में महाराष्ट्र तथा दक्षिण में आन्ध्रप्रदेश से लगी हुई है। उत्तर में छत्तीसगढ़ के रायपुर, दुर्ग तथा राजनांदगांव जिलों से उसकी सीमा संलग्न है। बस्तर मुख्यत: पहाड़ी एवं पठारी क्षेत्र है। इसके उत्तर एवं दक्षिण का धरातल निचला है। उत्तर पूर्व में विस्तृत उच्चतम भूमि है। उत्तर -पश्चिम में अबूझमाड़ का पहाड़ी भाग स्थित है। दक्षणि-पश्चिम में दन्तेवाड़ा की तराई तथा कुटरु बीजापुर की उच्चतम भूमि है। दक्षिण में पठार की सीमा गोदावरी के मैदान तथा पूर्व में इन्द्रावती के मैदान से बनती है। बस्तर संभाग के लगभग मध्य भाग में स्थित पर्वतमाला बैलाडीला इस अंचल के सबसे ऊँचे शिखर से युक्त है। इसकी अधिकतम ऊँचाई 4160 फुट है।

कांकेर से लगी हुई केशकाल घाटी है। हेयर-पिन टर्निंग वाली यह घाटी अद्भुत छटा लिये हुये है। नेशनल हाइवे से जाते हुए महसूस होने लगता है कि बस्तर यहीं से शुरू हो गया। बस्तर का पहनावा, यहाँ की बात, बोली, रहन-सहन सब केशकाल से शुरू हो जाता है। केशकाल से नेशनल हाइवे में आगे जाते हैं कोंडागांव और जिला मुख्यालय जगदलपुर पहुँचते हैं, इससे आगे दंतेवाड़ा, बीजापुर सुकमा, कोंटा एवं मड़ई के लिये देश-विदेश में चर्चित नारायणपुर कोण्डागाँव से पश्चिम में 50 किलोमीटर की दूरी पर है। कांकेर की सुबह किसी हिल स्टेशन का अहसास दिलाती है। दूध नदी एवं उसके सामने खड़ा विशाल गड़िया पहाड़, बड़े-बड़े काले ग्रेनाइट पत्थर अदभुत नजारा उपस्थित करते हैं। पर्यटकों के घूमने के लिए चित्रकोट का प्रपात, कोटमसर की विश्वप्रसिद्ध गुफा, कैलाश गुफा, तीरथगढ़ का झरना, चिंगीतराई, बैलाडीला में लौह अयस्क के पहाड़ों की श्रंखला, दंतेश्वरी माई का मंदिर, अकाशनगर, बारसूर की पुरातात्विक धरोहर आदि कई स्थान है।
[चित्रकोट जलप्रपात] 

इंद्रावती नदी के किनारे बसा जिला मुख्यालय जगदलपुर अपने आप में दर्शनीय है। जगदलपुर नगर के हृदय स्थल में स्थित शहीद पार्क, दलपत सागर का आइलेण्ड, दण्तेश्वरी मंदिर, बालाजी मंदिर, आसनापार्क, लामनी पार्क पर्यटकों का मन मोह लेते हैं। अन्य पर्वतों में अबूझमाड़ के पहाड़ , तुलसी डोंगरी, तेलिनघाटी, कोडेरघाटी, अरनपुर घाटी, रावनघाट तथा तरान्दुल के पहाड़ उल्लेखनीय है। संभाग के बीचों बीच पूर्व से पश्चिम की ओर प्रवाहित नदी इन्द्रावती इस क्षेत्र की सबसे बड़ी नदी है। इसकी कुल लम्बाई 402 किलोमीटर है। बस्तर अंचल में यह 386 कि.मी. बह कर गोदावरी नदी में मिल जाती है। अन्य नदियों में शबरी, शखनी, डंकिनी, नारंगी, कोटरी प्रमुख है। इन्द्रावती नदी पर चित्रकोट एवं कांगेर नदी (मुनगा गहार नदी भी कहते हैं) पर तीरथगढ़ के सुन्दर जल-प्रपात प्रसिद्ध है।

बस्तर अपने सघन वनों के लिये प्रसिद्ध है। प्राचीन काल में यह दण्डकारण्य का एक हिस्सा था। कालान्तर में गुप्तकाल के आसपास इसे महाकान्तार कहा जाता था। व्हेनसांग ने अपने यात्रा वृतांत में बैलाडीला का उल्लेख भी किया है। ऐंसा माना जाता है कि चन्द्रगुप्त मौर्य के शासन काल में हल्बा जाति बिहार से पलायन कर दक्षिण भारत पहुँच गयी एवं कालांतर में उनकी पीढ़ी बस्तर क्षेत्र में निवास करने लगी। बस्तर का 55.8 प्रतिशत भाग वनों से आच्छादित है। यहां की प्राकृतिक स्थिति तथा मानसूनी जलवायु सागौन तथा साल वनों के लिये सर्वथा अनुकूल है। बस्तर को ‘‘साल वनों का द्वीप’’ भी कहा जाता है। यहाँ की उष्ण-आर्द्र जलवायु में बीजा, टिक्स, साजा, हल्दू, शीशम जैसी इमारती लकडी के वृक्ष तथा बांस के वन यत्र तत्र प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं। अनेक प्रकार की लताएं, गुल्म, झाड़ियाँ, वनोषधियाँ, कन्द-मूल-फल इत्यादि की भी यहाँ प्रचुरता रही है। वन उपज में हर्रा, शहद, तिखुर, चिरौंजी, भेलवां लाख, धूप, महुआ इमली, सरई बीज, तेंदुपत्ता जैसी उपयोगी वस्तुएं उपलब्ध होती हैं। फूल बुहारी, सिंयाडी की रस्सी मसनी भी वनोपज से बनाई जाती है। इस अंचल में जंगली भैंसा, नीलगाय, शेर, चीता, तेंदुआ, चीतल, सांभर, बारहसिंगा, भालू, जंगली सूअर, बंदर तथा खरगोश जैसे वन्य पशु एवं मैना, मोर, बुलबुल, तोता, तीतर, बटेर, जंगली मुर्गी जैसे जंगली पक्षी पाये जाते है। बस्तर की मैना अपनी बोली के कारण विख्यात रही है। वन्य प्राणी सुरक्षा संबंधी कानूनों तथा बस्तर के अभ्यारण्यों में से जंगली भैसों, शेरों तथा अन्य प्राणियों की सुरक्षा की आशा बँधी है। अन्यथा इनका काफी विनाश होता रहा है। खनिज संसाधनों की दृष्टि से बस्तर भारत के अत्यधिक सम्पन्न क्षेत्रों में से एक है। यहाँ का सर्वाधिक महत्वपूर्ण एवं प्रचुर मात्रा में उपलब्ध अयस्क लोहा है। बैलाडीला, रावघाट, छोटे डोंगर, चेरागांव, कुरसुबोरी, कोंडा परवा में इसका भण्डार हैं। बैलाडीला से लौह अयस्क का निर्यात जापान को किया जाता है। अन्य महत्वपूर्ण खनिजों में टिन, बाक्साइट, कोरण्डम, अभ्रक, चूना पत्थर प्रमुख है।

साप्ताहिक बाजार का दिन यहाँ के रहवासियों के उत्सवित होने का खास दिन होता है। कई-कई किलोमीटर से स्त्री-पुरूष, बच्चे पैदल चल कर यहाँ आते हैं। बाजार तक का सफर एक तरह से जीवन का सफर होता है। पूरे सप्ताह भर बच्चे, बूढ़े, जवान इसी दिन का इंतजार करते हैं। गोंचा, एवं दशहरे के अवसरों पर पूरे बस्तर के गाँव-गाँव से, घर-घर से लोग जगदलपुर पहुँचते हैं। 

खाने पकाने के बर्तन, अनाज, कपड़े-लत्तों के साथ। इन दिनों जगदलपुर का दृश्य ही बदल जाता है। कलेक्टोरेट के सारे बरामदे, अन्य सरकारी भवन, अधिकांश लोगों के घर-परछी, बाग-बगीचे, सड़क के किनारे, यहाँ-वहाँ जहाँ भी देखिये भोजन बन रहा है। एक झुण्ड में बैठे सब बातें कर रहे हैं। आंगा देव के साथ कुछ लोग अलग झुंड में हैं। आंगा विशेष लकड़ी से बना होता है, दिखने में फ्रेम जैसा, दोनों सिरे को कंधे पर उठाकर दो व्यक्ति चलते हैं, दौड़ते हैं, आंगा को खेलाते हैं। वही आंगा उनके दुख-दर्द में सबसे नजदीक रहता है, खुशियों में सबसे सामने रहता है।

 बस्तर दशहरे में मावली परघा का कार्यक्रम बड़ा आकर्षक होता है, किसी भव्य शादी की बारात भी फीकी लगती है, जब दंतेश्वरी माई के छत्र का यहाँ आगमन होता है। दशहरे के रथ का निर्माण काफी पहले से शुरू हो जाता है। 

बस्तर की जनजातीय विविधता, जीवन-शैली, सामाजिक रीति-रिवाज एवं धार्मिक मान्यताएं जहाँ रूचिकर एवं जिज्ञासा उत्पन्न करने वाली है, वहीं बस्तर का प्राकृतिक सौन्दर्य मन मोह लेता है।

बस्तर एक खोज

 बस्तर के घोटुल
घोटुल बस्तर के आदिवासियों की महत्वपूर्ण संस्था है। घोटुल में युवक एवं युवतियाँ आमोद-प्रमोद के साथ सामाजिक ज्ञान प्राप्त करने के लिये एकत्रित होते हैं। कुछ विद्वानों ने इसे मात्र यौन अनुभव प्राप्त करने की संस्था मान लिया जो कि बिल्कुल गलत है। वास्तव में जब बस्तर के इस आदिवासी क्षेत्र में शिक्षण एवं सामाजिक संस्थायें नहीं थी, तब यही घोटुल आमोद-प्रमोद के साथ सामाजिक सीख भी देते थे। घोटुल में आने वाले युवक-युवतियों को अपना जीवन साथी चुनने की छूट भी होती रही है एवं इसे सामाजिक स्वीकृति भी प्राप्त थी। इसको स्वच्छंद यौन आचरण कदापि नहीं कहा जा सकता। मैने बस्तर को करीब से देखा एवं समझा है। उन घोटुलों को भी देखने का अवसर मुझे मिला जो कि अपने आदिम रूप में आज भी सुरक्षित हैं। मुझे यह सामाजिक ज्ञान एवं समाज को संगठित करने वाली संस्था लगी।

घोटुल गांव के किनारे बनी एक मिट्टी की झोपड़ी होती है। कई बार घोटुल में दीवारों की जगह खुला मण्डप होता है। ऐसे ही एक घोटुल को मैंने कोण्डागांव विकास खण्ड के ग्राम करंडी में देखा जब मैं वहाँ चुनाव कराने गया हुआ था। घोटुल के स्तंभों एवं दीवारों पर वाद्य यंत्र टंगे होते हैं जिनका उपयोग संध्या को बजाने के लिये किया जाता है। सूरज ढलने के कुछ ही देर पश्चात युवक-युवतियाँ धीरे-धीरे एकत्रित होने लगते हैं एवं कब उनका समूह गान प्रारम्भ हो जाता है पता ही नहीं चलता। कई बार ये समूह में गाते हुए ही घोटुल तक पहुँचते हैं। धीरे-धीरे स्वरों की तान एवं वाद यंत्रों की थाप पर ये थिरकने लगते हैं। युवतियों का समूह अलग बनता है एवं युवकों का अलग। एक दो गीतों के बाद ये समूहों में बातचीत करते एवं गांव की समस्याओं पर चर्चा करते दिखाई पड़ते हैं। समूह में गीत एवं नृत्य पुन: प्रारम्भ हो जाता है। घोटुल में युवक एवं युवतियों के साथ कुछ अधेड़ एवं वृद्ध लोग भी अवश्य आते हैं किंतु वे दूर बैठकर ही नृत्य इत्यादि देखने का आनंद लेते हैं। वे गीत एवं नृत्य में भाग नहीं लेते। इन्हें घोटुल का संरक्षक माना जा सकता है। कुछ स्थानों पर घोटुल के युवक ‘‘चेलिक’’ एवं युवतियाँ ‘‘मोटियारी’’ के नाम से पुकारी जाती हैं।

बस्तर में सभ्यता के प्रकाश एवं बाहरी व्यक्तियों के आगमन से जहाँ ‘‘घोटुल’’ का स्वरूप बिगड़ा है वहीं यह महत्वपूर्ण सामाजिक संस्था अंतिम सांसे गिन रही है। बस्तर के अंदरूनी क्षेत्रों में घोटुल आज भी अपने बदले हुए स्वरूप के साथ देखे जा सकते हैं।

संध्या में बस्तर के किसी भी अंदरूनी ग्राम में समूह में युवक-युवतियों को गाते एवं नाचते देखा जा सकता है हालांकि घोटुल जैंसी झोंपड़ी अधिकांश जगह नहीं होती। गांव के चौपाल या खुले क्षेत्र में ये युवक-युवतियाँ गाते बजाते एवं नृत्य करते हैं। घोटुल का स्थान ग्रामों में बन रहे सामुदायिक भवन ले रहे हैं। किेतु घोटुल की प्रथा समूह नृत्य एवं गान के माध्यम से आज भी पुराने दिनों की याद दिलाती है।
घोटुल में इसके सदस्य युवक-युवती आपसी मेल मिलाप एवं अपने से वरिष्ठ सदस्यों से जीवन उपयोगी शिक्षा, कृषि संबंधी जानकारी, नृत्य-गान के साथ ही साथ यौन शिक्षा भी प्राप्त करते हैं। घोटुल आदिवासी समाज में जीवन साथी चुनने का अवसर प्राप्त कराता है। घोटुल के विषय में यह आम धारणा प्रचलित है कि यह यौन शिक्षा एवं यौन अनुभव प्राप्त करने का केन्द्र है किंतु लम्बे समय से बस्तर की जनजातियों के बीच रहकर मैने यह पाया कि यह सर्वथा गलत धारणा है। वास्तव में आज का विकसित समाज भी जीवन साथी चुनने का अवसर प्रदान करने के लिये ‘‘परिचय सम्मेलनों’’ का आयोजन करता है एवं समाचार पत्रों में विवाह हेतु वर्गीकृत विज्ञापन देता है। अगर बस्तर के पूर्व आदिवासी समाज में इन्हीं सब कार्यों को घोटुल जैसी समाज से मान्यता प्राप्त संस्था करती थी तब निश्चित रूप से यह उनकी महान उपलब्धि मानी जायेगी। घोटुल में युवक-युवतियाँ नाचते-गाते हैं एवं किस्से कहानियाँ सुनते-सुनाते हैं। लगातार एक दूसरे के साथ रहने के कारण उन्हें एक दूसरे को समझने का अवसर प्राप्त होता है एवं वे यहीं विवाह सूत्र में बंध जाते हैं। बाहरी लोगों के लगातार हस्तक्षेप फोटो खींचना, वीडियो फिल्म बनाना एवं प्रदर्शन ही इस घोटुल परम्परा के बन्द होने का कारण बना है।
घोटुल में सौलह वर्ष तक के युवक-युवती रह सकते हैं। हालांकि उम्र का ऐसा कोई विशेष बंधन नहीं होता किंतु विवाह पश्चात आम तौर पर युवक-युवती घर के काम-काज में व्यस्त हो जाते हैं एवं पारिवारिक जिम्मेदारियों के चलते घोटुल नहीं आ पाते। युवक-युवतियों की इच्छा जानकर उनका विवाह सामाजिक रीति रिवाजों के साथ कर दिया जाता है। घोटुल में रहते हुए भी यदि कोई युवती गर्भवती हो जाती है तो उससे उसके साथी का नाम पूछ कर उसका विवाह उस से कर दिया जाता है। छोटी आयु के लड़के-लड़कियाँ घोटुल की साफ-सफाई के साथ लकड़ी बीन कर लाने, आग जलाने इत्यादि का काम भी करते है। साथ ही ये अपने से बड़ों के क्रिया-कलाप देख स्वयं भी वैसे ही बनते चले जाते हैं।

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बस्तर का इतिहास
 
बस्तर में 14 वीं शताब्दी के पूर्वार्ध से काकतीय राजवंश का शासन रहा है। काकतीय वंश जो कि चालुक्य वंश के नाम से भी जाना जाता रहा है, के बस्तर में प्रथम शासक बने आत्मदेव। काकतीय वंश का उदय दक्षिण भारत के तेलंगाना राज्य से माना जाता है। तेलंगाना के काकतीपुर में इस वंश ने प्रथम नगर की स्थापना की एवं इसी नगर से इस वंश ने अपना वंशनाम काकतीय प्राप्त किया। शिलालेखों से प्राप्त जानकारी एवं विद्वानों के शोध से यह पता चला कि बस्तर के राजा काकतीय तथा पाण्डुवंश में उत्पन्न हुए। काकतीय वंश के राजाओं का राज्य दक्षिण के वारंगल में था। वहाँ के राजा प्रतापरूद्र देव के छोटे भ्राता आत्म देव ने वारंगल से पलायन कर दक्षिण में दण्डकारण्य क्षेत्र में आश्रय लिया एवं संघर्ष कर काकतीय वंश की नींव रखी। वारंगल से आत्म देव के पलायन का कारण मुस्लिम शासको से संघर्ष बताया जाता है।
Discovery of Bastar - a book by Sharad Gaur and Kavita Gaurलेखक परिचय:-

शरद चन्द्र गौड तथा कविता गौड बस्तर अंचल में अवस्थित रचनाकार दम्पति हैं। आपका बस्तर क्षेत्र पर गहरा अध्ययन व शोध है।
आपकी प्रकाशित पुस्तकों में बस्तर एक खोज, बस्तर गुनगुनाते झरनों का अंचल, तांगेवाला पिशाच, बेड नं 21, पागल वैज्ञानिक प्रमुख हैं। साहित्य शिल्पी के माध्यम से अंतर्जाल पर हिन्दी को समृद्ध करने के अभियान में आप सक्रिय हुए हैं।

ऐसा माना जाता है कि रक्ष संस्कृति से पृथ्वी की रक्षा के लिये ब्रह्मा ने चुलुक से एक वीर पुरूष की उत्पत्ति की जिसने चालुक्य वंश का प्रारंभ किया। इसी लिये चालुक्य वंशी बस्तर नरेश विष्णु की पूजा करते हैं। बस्तर में काकतीय वंश के अंतिम महाराजा प्रवीर चन्द्र भंजदेव थे। उनकी माता महारानी प्रफुल्लकुमारी देवी की मृत्यु लंदन में सन् 1936 में हुई। वारंगल में काकतीय वंश की आठवीं शासिका महारानी रूद्रांबा के बड़े नाती प्रतापरुद्र देव वारंगल के महाराजा बने एवं उनके छोटे भाई ने बस्तर के दण्डकारण्य क्षेत्र में पलायन कर नागवंशी राजाओं को पराजित कर काकतीय वंश की नींव रखी। आत्म देव ने सन् 1313 में राजा के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त की एवं 42 वर्षों तक राज्य करने के पश्चात् 77 वर्ष की आयु में सन् 1358 में उनकी मृत्यु हुई। उन्होने बारसूर तथा दण्तेवाड़ा पर विजय प्राप्त कर नागवंशी राजाओं की राजधानी रहे चक्रकूट पर विजय प्राप्त की। ऐसा माना जाता है कि तत्कालीन चक्रकूट(वर्तमान बस्तर) वारंगल पर आश्रित राज्य नहीं था। यहाँ पर काकतीय शासक ने विजेताओं के समान व्यवहार न कर एक सामान्य राजा की भांति ही व्यवहार किया। उस समय नागवंशी शासकों का प्रमुख नगर बारसूर था। आज भी बारसूर में मिले पुरातात्विक अवशेष उसके वैभव की कहानी आप कहते हैं। मामा-भांजा का मंदिर हो अथवा गणेशजी की विशाल बलुआ पत्थर से बनी प्रतिमा, उस काल की कला एवं संस्कृति की अनुपम धरोहर है।

कहा जाता है कि आत्म देव को देवीय वरदान था कि वह जहाँ तक भी अपने विजय अभियान में जायेंगे, देवी उनके साथ-साथ जायेंगी एवं देवी के पायल की आवाज उन्हें सुनाई देती रहेगी किंतु यदि आत्मदेव ने पीछे मुड़कर देखा तो फिर देवी के पायल की आवाज उन्हें कभी सुनाई नहीं देगी एवं उनका विजय अभियान रूक जायेगा । उत्तर बस्तर के अपने विजय अभियान में जब आत्मदेव निकले, तब पैरी नदी को पार करते समय उन्हें देवी की पायल की आवाज सुनाई देनी बंद हो गई और उन्होंने पीछे मुड़कर देखा। पैरी नदी की रेत में पैर धंस जाने के कारण देवी की पायल नहीं बजी थी। बस यहीं उनका विजय अभियान रूक गया। देवी की पायल के नाम पर ही उस नदी का पैरी पड़ा।
आत्मदेव की मृत्यु के पश्चात सन् 1358 से 1379 तक हमीरदेव ने राज्य को मजबूती प्रदान की। हमीर देव की मृत्यु के पश्चात उसका पुत्र भैराज देव गद्दी पर बैठा एवं उसने 1379 से 1408 तक शासन किया। भैराज देव के शासन काल तक नागवंशी राजाओं की बची-खुची शक्ति भी समाप्त हो गई एवं बड़े डोंगर का क्षेत्र भी उनके हाथ से निकल गया। भैराज देव की मृत्यु के पश्चात उसका पुत्र पुरूषोत्तम देव 1408 में गद्दी पर बैठा एवं उसने 1439 तक शासन किया। पुरूषोत्तम देव एक प्रतापी एवं महत्वाकांक्षी राजा था। उसने रायपुर के कल्चुरियों पर आक्रमण किया किंतु उसे पराजय का मुँह देखना पड़ा। गनीमत थी कि रायपुर के कल्चुरी राजा ने विजय प्राप्त करने के पश्चात भी बस्तर पर अधिकार करने का प्रयास नहीं किया।
पुरूषोत्तम देव ने पैदल चल कर जगन्नाथ पुरी की तीर्थ यात्रा की एवं भगवान जगन्नाथ के मंदिर में सोना-चांदी , हीरे-जवाहरात चढ़ाये। बस्तर नरेश की श्रद्धा से प्रसन्न होकर भगवान जगन्नाथ ने स्वप्न में आकर उन्हें रथपती की उपाधी दी। तब से लेकर आज तक बस्तर में दशहरा पर्व के अवसर पर विशाल काष्ठ रथ की परिक्रमा होती है। पहले रथ पर राजा बैठा करते थे, किंतु बदली परिस्थितियों में अब माँ दंतेश्वरी का छत्र रथ पर रहता है। साथ में उसके पुजारी भी रथ की सवारी करते हैं। पुरूषोत्तम देव के शासन काल में राजधानी मंधोता से बस्तर कर दी गई।
पुरूषोत्तम देव के पश्चात उनके पुत्र जयसिंह देव ने सन् 1439 से 1457 तक शासन किया। जयसिंह देव के पश्चात उसके पुत्र नरसिंह देव ने 1457 से 1501 तक कुल 44 वर्षों तक शासन किया। नरसिंहदेव की मृत्यु के पश्चात प्रताप राज देव गद्दी पर बैठे। उन्होंने अपने पड़ोसी राज्य गोलकुण्डा पर आक्रमण किया किंतु पराजित होकर उन्हें जंगलों में छिपना पड़ा। किंतु भाग्य से घने जंगलों के कारण गोलकुण्डा की सेना को वापिस जाना पड़ा एवं काकतीय वंश एवं प्रताप राज देव की गद्दी बच गयी। प्रतापदेव के पश्चात उनके पुत्र जगदीश राय देव सन् 1524 में गद्दी पर बैठे और उन्होंने 14 वर्षों तक शासन किया तथा उनकी मृत्यु के बाद उनके पुत्र वीर नारायण देव ने सन् 1538 से 1553 तक शासन किया। वीर नारायण देव के पुत्र वीर सिंह देव का राज्यारोहण 1553 में हुआ। इनके शासन काल में कलचुरी राजा त्रिभुवन साय ने बस्तर पर विजय प्राप्त की किंतु इस विजय के बाद भी बस्तर राज्य का स्वतंत्र अस्तित्व बना रहा। यह काल मुगल बादशाह अकबर का शासन काल भी रहा है किंतु मुगलों ने भी कभी बस्तर पर विजय प्राप्त नहीं की।
दृगपाल देव ने 1620 से 1649 तक शासन किया किंतु शासन काल के संबन्ध में विद्वानों में मतभेद रहे हैं। दृगपाल देव की असामायिक मृत्यु के कारण 13 वर्ष की उम्र में उनका पुत्र रक्षपाल गद्दी पर बैठा। इनके शासन काल में गोलकुंडा के मुसलिम शासक ने बस्तर पर आक्रमण किया। रक्षपाल को गुप्त स्थान पर जाना पड़ा। वहीं उसकी रानी रुद्र कुंवर ने एक ब्राह्मण के घर शरण ली जहाँ बस्तर के प्रतापी राजा दलपत देव का जन्म हुआ। रक्षपाल देव की मृत्यु के पश्चात सत्ता का संघर्ष गहरा गया एवं उसके बड़े पुत्र दलपत देव की अनुपस्थिति का लाभ उठाकर उसकी सौतेली माँ ने अपने भाई को गद्दी सौंप दी। किंतु दलपत देव ने जैपुर राजा की मदद से अपना खोया हुआ राज्य पुन: प्राप्त किया एवं वे वास्तविक रूप से 1722 में राजा बन पाये। इनके शासन काल में नागपुर के मराठों का हस्तक्षेप बस्तर राज्य में शुरू हो गया था। दलपत देव के छोटे भाई प्रताप देव ने मराठों की मदद से दलपत देव की सत्ता को हस्तगत् करने का प्रयास किया। इनके काल में हैदराबाद के निजामों ने भी बस्तर पर आक्रमण किया। दलपत देव के द्वारा बनाया गया विशाल तालाब दलपत सागर आज भी उनकी याद दिलाता है।
दलपत देव के पुत्र दरियाव देव ने सन् 1775 में राजपाट की बागडोर संभाली। किंतु दरियाव देव के भाई अजमेर सिंह ने भी गद्दी पर आपना दावा प्रस्तुत किया। अजमेर सिंह महाराजा दलपत देव की पटरानी का पुत्र था, अत: उसका दावा बस्तर के राजा बनने का लगता था। किंतु अवस्था में वह दरियाव देव से छोटा था। अत: राजपाट दरियाव देव को ही प्राप्त हुआ। बाद में अजमेर सिंह ने बड़े डोंगर पर अपना अधिकार कर अपने आप को वहाँ का राजा घोषित कर दिया। अजमेर सिंह कांकेर राजा का दामाद था। अत: उसने कांकेर के राजा के साथ मिल कर दरियाव देव पर आक्रमण कर उसे परास्त भी किया। दरियाव देव को भाग कर जैपुर राजा के पास शरण लेनी पड़ी। इस प्रकार लगभग दो वर्षों तक अजमेर सिंह ने पूरे बस्तर पर राज्य किया। दरियाव देव ने जैपुर महाराजा एवं रायपुर के मराठा सरदार बिम्बाजी भोंसले के साथ संधि की एवं दोनों की सम्मिलित सैनिक सहायता के बल पर अजमेर सिंह को परास्त किया। अजमेर सिंह बड़े डोंगर भाग गया। एवं पुन: उसने दरियाव देव पर हमला किया किंतु दरियाव देव ने संधि करने के बहाने अजमेर सिंह को बुलाया एवं उसपर अचानक आक्रमण कर घायल कर दिया। बाद में उसकी मृत्यु घावों के कारण हो गई। इस प्रकार दरियाव देव का शासन काल बस्तर के इतिहास में महत्व रखता है। गद्दी के लिये हुए संघर्ष में मराठों और जैपुर राज्य की घुसपैठ बस्तर राज्य में शुरू हो गई। दरियाव देव के शासन काल के बाद किसी ना किसी रूप में बस्तर राज्य बाहरी हस्तक्षेप का शिकार रहा। बड़े डोंगर क्षेत्र के हलबा लोगों ने कभी दरियाव देव का समर्थन नहीं किया। अत: दरियाव देव ने बड़े डोंगर के हलबा लोगों का बड़ी ही बेदर्दी के साथ दमन किया। उसने अपनी राजधानी जगदलपुर से केसलूर स्थानांतरित कर दी थी।
दरियाव देव की मृत्यु के पश्चात उसका अल्पवयस्क पुत्र महिपाल देव जो कि उस समय सिर्फ 9 वर्ष का था, गद्दी पर बैठा। किंतु राज काज का संचालन उसके चाचा उमराव सिंह के नियंत्रण में था। उमराव सिंह ने मराठों की मदद से बस्तर पर आक्रमण किया। रामचन्द्र बाध के नेतृत्व में मराठों ने महिपाल सिंह को परास्त किया एवं उमराव सिंह को राजा की प्रतिष्ठा प्राप्त हुई। किंतु मराठा सेना की वापसी के पश्चात महिपाल ने अपना राज्य फिर से प्राप्त कर लिया। उमराव सिंह ने कोटपाड़, पोड़ागढ़, रायगढ़, उमरकोट आदि जो क्षेत्र संधि कर जैपुर राजा को दे दिये थे, उन्हें पुन: जैपुर राजा से प्राप्त करने का प्रयास किया। किंतु वह ही नहीं उसके पश्चात कोई भी राजा इस प्रयास में सफल नहीं हो पाया। आज भी ये भूभाग उड़ीसा राज्यांतर्गत आते हैं। ज्ञातव्य हो कि काकतीय वंश के पहले नलवंशी राजाओं ने बस्तर राज्य की राजधानी पोड़ागढ़ को ही बनाया था।
नागपुर में भोंसले शासको के पतन एवं अंग्रेजो के प्रभाव क्षेत्र में वृद्धि के कारण महिपाल देव ने अंग्रेज शासन के प्रतिनिधि मेजर पी.वाम. एग्न्यू के साथ संधि की। संधि में उल्लेखित शर्तों के अधीन महिपाल देव ने नागपुर राज्य के अधीन रहना स्वीकार किया। महिपाल देव के नर्म रूख के कारण ब्रिटिश रेसिडेन्ट का हस्तक्षेप बस्तर राज्य में बढ़ने लगा। 1836 में नागपुर राज्य द्वारा दिये गये निर्देशों के अनुसार बस्तर राज्य के दीवान की नियुक्ति ब्रिटिश रेसिडेन्ट की स्वीकृति के बिना संभव नहीं रही। साथ ही दीवान के अधिकार राजा के बराबर होने लगे एवं दोनों में टकराव की स्थिति भी बनने लगी। सही मायने में राजा के अधिकार अंग्रेजों के हाथ में जाने लगे। राजा महिपाल देव की मृत्यु के पश्चात उनके पुत्र भूपाल देव ने राजपाट संभाला एवं उन्होंने 1842 से 1853 तक शासन किया। भूपाल देव का अपने सौतेले भाई लाल दलगंजन सिंह से जीवन पर्यंत संघर्ष चलता रहा। भूपाल सिंह ने लाल दलगंजन सिंह को शासन में बहुत से अधिकार भी दिये किंतु उसकी महत्वाकांक्षाओं का अंत नहीं हुआ। उसने नागपुर के मराठा शासकों एवं अंग्रेजों के साथ मिल कर भूपाल के विरूद्ध शिकायतें की। प्रजा को भी भड़काया। इस प्रकार भूपालदेव के शासन का अधिकांश समय अपने सौतेले भाई के साथ संघर्ष में ही निकल गया। भूपाल ने अपने शासन काल में बहुत से तालाब खुदवाये। उनमें से कुछ आज भी सुरक्षित हैं। भूपाल देव की मृत्यु 47 वर्ष की आयु में हो गई एवं उसके अल्प वयस्क पुत्र भैरम देव को गद्दी पर बैठा दिया गया। उस समय उनके चाचा जो कि भूपाल देव की शिकायत पर नागपुर में जेल की सजा काट रहे थे, शासन की देखभाल के लिये बस्तर भेज दिये गये। भैरम देव के शासन काल में लार्ड डलहौजी की हड़पनीति की बदौलत नागपुर का मराठा राज्य सीधे अंग्रजों के नियंत्रण में चला गया क्योंकि भोंसले राजा रधुजी तृतीय की 1853 में मृत्यु के समय उसके कोई पुत्र नहीं था। 1855 में जार्ज इलियट छत्तीसगढ़ के डिप्टी कमिशनर बने। उन्होंने बस्तर का दौरा किया एवं यहाँ के राजा एवं दीवान से मुलाकात की। 1862 में डिप्टी कमिशनर ग्लासफर्ड ने बस्तर का दौरा किया।
भैरम देव की मृत्यु के पश्चात 6 वर्ष की आयु में रूद्र प्रताप देव 29 जुलाई 1891 को गद्दी पर बैठे। शासन की वास्तविक बागडोर दीवान एवं अंग्रेज शासन द्वारा नियुक्त अधिकारियों के हाथ में थी। राजा रूद्र प्रताप देव की शिक्षा राजकुमार कालेज रायपुर में हुई। उन्हें अंग्रेजी भाषा का भी अच्छा ज्ञान था। मध्य प्रदेश के प्रथम मुख्य मंत्री पं. रविशंकर शुक्ल ने भी उन्हें प्राइवेट टयूशन दी थी। उनका विवाह उड़ीसा राज्य के एक राजा सूढल देव की पुत्री कुसुमलता देवी के साथ हुआ था। इनसे राजा रूद्र प्रताप देव को एक पुत्री प्रफुल्ल कुमारी देवी की प्राप्ति हुई जो बाद में बस्तर राज्य की पहली महिला शासिका बनी। इन्होने राजा रूद्र प्रताप देव पुस्तकालय की स्थापना की जो कि आज भी संचालित है। इन्हीं के शासन काल में आधुनिक राजमहल का निर्माण भी किया गया। चौराहों के शहर बस्तर को इसका स्वरूप इन्हीं के शासन काल में प्राप्त हुआ। इनके शासन काल में दीवान एवं पालीटिकल ऐजेंट के अधिकार अत्यधिक बढ़ गये एवं राजा द्वारा स्वतंत्र रूप से निर्णय लेना असंभव हो गया। हालांकि प्रथम विश्व युद्ध के समय रूद्र प्रताप देव ने अंग्रजों की मदद की थी एवं उन्हें सेंट जार्ज आफ जेरूसलम पदक भी प्राप्त हुआ था।
राजा रूद्रप्रताप देव के कोई पुत्र नहीं था। अत: उनकी मृत्यु के पश्चात 1921 को उनकी पुत्री राजकुमारी प्रफुल्ल कुमारी देवी मात्र 11 वर्ष की उम्र में गद्दी पर बैठी। 1933 में अंग्रेज सरकार ने महारानी का दर्जा प्रदान किया। उन्होंने 1935 में भारत के वायसराय से मुलाकात की। साथ ही इन्होनें यूरोप के कई नगरों का भी भ्रमण किया। इनका विवाह मयूरभंज राजपरिवार के प्रफुल्ल चन्द्र भंजदेव के साथ 22 जनवरी 1927 को संपन्ना हुआ। इनकी दो कन्याएं कमला देवी एवं गीता देवी एवं दो पुत्र प्रवीर चन्द्र एवं विजय चन्द्र हुए। महारानी का देहांत लंदन में 28 फरवरी 1936 को हुआ।
इनकी मृत्यु के पश्चात इनके बड़े पुत्र प्रवीर चन्द्र भंजदेव 6 वर्ष की अवस्था में गद्दी पर बैठे एवं वे बस्तर के अंतिम शासक रहे। जब वे गद्दी पर बैठे, तब बस्तर के एडमिनिस्ट्रेटर ई.सी.हाइड थे। इनके द्वारा नियुक्त समिति के द्वारा बस्तर का शासन संचालित था। महाराजा प्रवीर की शिक्षा राजकुमार कालेज रायपुर, व इंदौर और देहरादून की मिलेट्री अकादमी में हुई। कर्नल जे.सी.गिप्सन को उनका अभिभावक बनाया गया था। 15 अगस्त 1947 को देश आजाद हुआ एवं प्रवीर चन्द्र भंजदेव ने 1 जनवरी 1948 को बस्तर राज्य का विलय भारत गणराज्य में कर दिया। 25 मार्च 1966 को जगदलपुर राजमहल गोलीकाण्ड में महाराजा प्रवीर चन्द्र भंजदेव अनेक आदिवासियों के साथ मारे गये। वास्तविक रूप से महाराजा प्रवीर ने बस्तर पर भले ही कभी राज न किया हो किंतु बस्तर के जनमानस में उनकी प्रतिष्ठा ईश्वर के रूप में रही एवं आज भी उन्हें बस्तर के घर-घर में पूजा जाता है। उनकी तस्वीर को पूजा के कमरे में अन्य देवी देवताओं के साथ रखा जाता है। महाराजा प्रवीर ने वास्तविक रूप से बस्तर वासियों के दिल पर राज किया और यह राज्य आज भी कायम है।