Saturday, July 28, 2012

श्रीमती कविता गौड़ की कविताएं



श्रीमती कविता गौड़ की कविताएं

//1//
घर
खाली मकान को घर कहते हो
ना बच्चों की किलकारियाँ
न सास की दुलार भरी फटकार
न ननद से तकरार व मुनहार
न ससुर व जेठ के खखारने
का संकेत
न बहु के पायल की मीठी
झुन-झुन सी आवाज
न देवर भाभी का मीठा परिहास
न षाम को पड़ोसिनों की बैठक
न मोहल्ले के बच्चों की धूम-धड़ाका  
यह सब ना होते हुए भी
मकान अब घर कहलाते है
फर्नीचर व सजावट से होता है
घर के व्यक्तियों का आँकलन
लोगों के रहने की जगह में 
रहते हैं अब लग्जरी सामान
ऐसा ही होता है आज का मकान
नहीं-नहीं आज का घर....आज का घर

//2//
त्याग
त्यााग है माता
त्याग है पत्नी
त्याग है बहन
त्याग है बेटी
त्याग है हर नारी
त्यागती है घर अपना
पति के लिए
त्याागति है सुख चैन
बच्चों के लिए
त्याागति है हर इच्छा
परिवार के लिए
फिर भी न होता
कोई नाम उसका
पर जब कोई पुरूश
त्याग करता है
तो वो ऊँचाईयों
पर पहुँच जाता है
राम और भीश्म बनकर
दुनिया में पूजा जाता है

मेरी कविता अबूझ...अबूझमाड़.......... & नारायणपुर.......


 //1//
अबूझ...अबूझमाड़..........

अब मैं नहीं रहा अबूझ
पहेलियों की तरह
कठिन प्रष्नों का पुलिन्दा

गुंजती है ढोल-नगाड़ों
और गीतों से
मेरी हर शाम

घोटुल में
चेलिक-मोटियारी
के नृत्य मेरा जीवन है
मेरी संस्कृति मेरी धरोहर है
अब भी मेरी हवाओं में
शांति है , मिठास है
अब भी मुझे बारूद की गंध अच्छी नहीं लगती
लहलहाते वन, कल-कल करते झरने निष्छल निष्कपट आदिवासी जन
मेरी जीवन है
अब लोग मुझे बुझ रहे हैं
अब नहीं रहा मैं अबूझ...अबूझमाड़
//2//
 नारायणपुर.......

उबड़-खाबड़ रास्ते
घने वन
गलियां की आवाजें
बमों के धमाके
मौत से सन्नाटे में
बन रही सड़कें, पुल-पुलिए और स्कूल
सूरज की रोषनी
प्रति दिन बन कर आती है
आषाओं की पहली किरण

विकास के पथ पर
चलेंगे हम चाहे जितनी आएं बाधाएं
लांघ लेंगे हम ऊँचे - ऊँचे अवरोधों को
बढ़ चले ये कदम
ना रूकेंगे अब

अब ना रहेगा
अबूझ... अबूझमाड़
अब ना रहेगा कोई
अनपढ़ और अषिक्षित किसान

नारायणपुर की मढ़यी
फिर सजेगी
फिर होगा
जीवन उल्लास

बंद पड़े घोटुल
फिर होंगे आबाद
चैलिक और मोटियारी
फिर झूमेंगे साथ-साथ

एक यात्रा वैश्णोदेवी श्रीनगर ,एवं अम्रतसर की........




एक यात्रा वैश्णोदेवी श्रीनगर ,एवं अम्रतसर की........


मेरी साली साहिबा का फोन आया जीजाजी वैश्णोदेवी जाने का आरक्षण करा रहे हैं आप भी जाओगे, अक्सर मैं मना कर दिया करता था इसलिए उन्हें मेरी हां की उम्मीद कम ही रही होगी लेकिन मैनें अपनी सहमती जता दी , साथ ही अम्रतसर , श्रीनगर एवं गुलमर्ग जाने का भी प्रस्ताव रखा, श्रीनगर जाने की इच्छा लंबे समय से रही है, फिर वहां षांति की स्थापना ने वहां घूमने का एक अवसर प्रदान किया मैं इसे खोना नही चाहता था। रिजर्वेषन चूंकि दो माह पहले करा रहे थे इसलिए परेषानी नहीं हुई दुर्ग- जम्मूतवी सुपरफास्ट से 29 मई 2012 को हमारा 19 बर्थ का रिजर्वेषन हो गया। मुझे मेरी पत्नी कविता बच्चों संस्कार एवं सत्यदीप को जगदलपुर से रायपुर आकर टेªन पकड़नी थी, मेरे साडू़ भाई दीपक, साली प्रतिभा उनके दो बच्चों ईषा एवं दिवयांष को गीदम से रायपुर आना था गीदम जगदलपुर से भी 80 किलोमीटर दक्षिण में है जो कि एक धूर नक्सली बेल्ट के नाम से जाना जाता है। हम दोनों परिवार 27 तारीख को ही अपनी ससुराल सुन्दरनगर रायपुर आ गये। रायपुर से मेरे सास-ससुर भी साथ जा रहे थे, एक साली रचना एवं उसके बच्चे यष एवं  यषस्वी को भिलाई से रायपुर आना था, वे भी 28 तारीख को ही रायपुर आ गये। अब हम लोगों का घूमने का पूरा मूड़ बन चुका था एवं रास्ते की तैयारी जोर-षौर से चल रही थी, खाने पीने का इतना सामान ये सभी रख रहे थे कि दो लगेज सिर्फ खाने पीने के सामान से ही भर गये। मेरी पत्नी कविता छः बहने हैं उनमें से वह सबसे बड़ी है, इस यात्रा में छः में से मेरी पांच साली एवं उनका परिवार साथ जा रहा था, इतने लागों का एक साथ इक्ट्ठा होना एक दुर्लभ संयोग था लेकिन हम कमोबेस सब एक जगह इकट्ठे हो रहे थे। सबसे छोटी साली एकता उसके पति सतीष एवं उनकी बच्ची को रायपुर के घर की रखवाली का दायित्व मिला वे बच्ची के छोटी होने के कारण इस यात्रा पर नही जा रहे थे, वे दोनों भी 29 तारीख की सुबह ही रायपुर पहुंच गये, अब सुंदरनगर रायपुर का हमारा घर खचाखच भर चुका था बच्चों की उठापटक कूंदफांद , हल्लागुल्ला को रोकना अब किसी के बस में नहीं था। इस यात्रा के सूत्राधार रेल्वे कर्मचारी मेरे साड़ु भाई बृजेष ने टिकिट कटाने का बीड़ा उठाया था, वो उनकी पत्नी अर्थात मेरी एक और साली भावना उसके बच्चे बादल-बिन्नी को बिलासपुर से चढ़ना था, एक और साली अर्चना एवं उसकी बच्ची रिया को षहडोल से चढ़ना था, उनके पति संजीव मेरे बहुत अच्छे मित्र हैं मैं चाहता था कि वे भी साथ जायें लेकिन नौकरी संबंधी व्यस्तता के कारण वे हमारे साथ नहीं जा रहे थे।
नियत समय से डेढ़ घंटे पहले पहले हम लोग रेल्वे स्टेषन पहुंच चुके थे टेªन प्लेटफार्म नं 5 पर आने वाली थी सभी इलेक्ट्रानिक डिस्प्ले दुर्ग-जम्मुतवी के 5 नम्बर पर आने की सूचना दे रहे थे कि टेªन के आने के सिर्फ पांच मिनिट पहले एनाउंसमेंट होने लगा कि दुर्ग से चलकर जम्मूतवी जाने वाली सपुरफास्ट टेªन प्लेटफार्म नं 2 पर आ रही है। समस्या यह थी कि अभी भी इलेक्ट्रानिक डिस्प्ले टेªन को प्लेटफार्म नं 5 पर आने की सूचना दे रहे थे जबकी एनाउंसर उसके प्लेटफार्म नं 2 पर आने की लगातार उदघोशणा कर रही थी, पूरे प्लेटफार्म पर अफरातफरी आ आलम था, इतने सारे सामान एवं बच्चों के साथ होने के कारण मेरी भी हालत पस्त हो गई तिस पर से हमने कुली भी नहीं किया था, तभी किसी ने सूचना दी अनाउंसर ने गलत अनांउस किया है, ट्रेन इलेक्ट्रानिक डिस्प्ले के अनुसार प्लेटफार्म नं 5 पर आ रही है। इस अफरातफरी के माहोल में ही करीब 12.30 बजे टेªन ने प्लेटफार्म नं 5 में प्रवेष किया, कुछ मुसाफिर प्लेटफार्म नं 2 पर भी जा चुके थे, अधिकांष अपनी बोगियों से दूर थे, इसलिए अफरातफरी का माहौल कम नहीं हुआ था गनीमत है, हम सभी अपनी बोगी के पास ही थे इसलिए हमें अपनी बोगी में चढ़ने में ज्यादा परेषानी नहीं हुई, गर्मी के मारे बुरा हाल था, भीड़ एवं अफरातफरी के माहोल में बच्चों के गुम हो जाने की षंका होती है, हमारी सास हम लोगों को कहीं नहीं दिखाई दे रही थी एवं टेªन ने प्लेटफार्म को छोड़ दिया था, गनीमत थी वे बोगी के दूसरे गेट की तरफ से आती नजर आयी। वैश्णोदेवी दर्षनार्थियों की भीड़ के कारण कूपे में रिजर्वेषन से ज्यादा लोग भरे थे एक परिवार तो बिना बर्थ कनफर्म के ही जम्मू के 1800 कि.मी. के सफर पर निकला हुआ था, ऐंसे और भी यात्री थे जिनने बोगी में भीड़ का माहौल बना दिया था। भाटापारा आते-आते हमें बड़ी मुष्किल से अपनी सीटें प्राप्त हो सकी। बच्चों ने अपना रंग जमा लिया था उनके अंताक्षरी के दौर चल रहे थे वहीं ताष के खेल भी वे खेल रहे थे, हम लोग भी उनके साथ ही इंज्वाय करने के मूड में थे। बिलासपुर से बादल एवं बिन्नी के आ जाने से बच्चों की तो जैसे चांदी हो गई , एक छः सीट का पूरा कूपा उनलोगों ने हथिया लिया एवं जम कर मस्ती करने लगे, उन्हें देख कर यही लगता है कि इन्हें कभी थकान नहीं होती, वहीं गर्मी के मारे भी बुरा हाल था, ठण्डा पानी एवं षीतल पेय ही एक मात्र विकल्प बचा था, अब सभी को इंतजार था षहडोल का ढेर सारे खाने-पीने के सामान के साथ अर्चना एवं रिया षहडोल के रेल्वेस्टेषन पर मौजूद थे, सजीव उनको छोड़ने आये थे , मैं प्लेटफार्म पर उतरा एवं उनसे मुलाकात की। अब हमारे सफर के पूरे मुसाफिर टेªन में सवार हो चुके थे उनकी मस्ती के कारण मानों पूरा कंपार्टमेंट जी उठा था। षहडोल के बाद गर्मी में भी कमी आ चुकी थी मौसम अच्छा खासा सुहावना हो चुका था, खाने का एक आईटम खा भी नहीं पाते थे कि दूसरा निकल जाता था।
मेरी बड़ी बहन एवं उसका परिवार ग्वालियर में रहता है, मेरा मित्र प्रतीक भी ग्वालियर में है, वे मुझसे मिलने प्लेटफार्म पर आने वाले थे किंतु पता चला कि झांसी के बाद टेªन सीधी अगरा केंट रूकती है। आगरा में भी मुझे मेरे एक फेस बुक मित्र से मिलना था, पठानकोट जाने के कारण वे आगरा में मुझसे मिलने नहीं आ सके , मिलने की जगह चक्की बेंक तय हुई जोकि पठानकोट के पास ही है एवं वहां से जम्मू डेढ़ घण्टे की दूरी पर रह जाता है। षिव दिसवार से मेरी मुलाकात फेस बुक पर हुई थी किंतु षीघ्र ही हम दोनों फोन पर भी बात करने लगे , उसकी पोस्टिंग श्रीनगर से तीन सौ किलोमीटर आगे मिलेट्री केंप में थी एवं वह इस समय अपने घर आगरा आया हुआ था, मुझे उसकी चक्की बेंक में इंतजार रहा किंतु वह नही आ पाया, फिर मेरी उससे मुलाकात वापसी में आगरा स्टेष्न पर ही संभव हो सकी। सफर में गरमी थी किंतु फिर भी हम सब उसका भरपूर लुत्फ उठा रहे थे, चक्की बेंक से जम्मूतवी तक टेªन बिल्कुल पेसेंजर में तब्दील हो गई, पता चला यहां से सिंगल लाईन है, लगभग सही समय संध्या 9.30 पर हम जम्मूतवी पहुंचे। वापसी में हमे उस नदी को देखने का भी अवसर मिला जिसके नाम पर इस स्टेषन का नाम जम्मूतवी पड़ा था। हमने पहले ही से निर्णय लिया हुआ था कि यदी साधन मिल गया तब हम सीधे बस से कटरा जायेंगे, रात्राी विश्राम कटरा में ही कर 31 तारीख की सुबह हम वैश्णोदेवी की चढ़ाई सुबह षुरू करेंगे। सामान को स्टेषन से बाहर निकालकर कर मैं, बृजेष एवं दीपक बस की जानकारी लेने बस अड्डे की तरफ निकले, षेश साथियों को सामान के साथ वहीं रूकने को कहा गया। बस अड्डा पास ही था, कटरा के लिए लाईन से बस खड़ी थी एक दो बस वालों से बात भी हो गई, हम वापस अपने साथियों के पास आये ,दूरी ज्यादा नहीं थी एवं सभी के लगेज में व्हील लगे थे इसलिए हम बिना आटो रिक्सा या कुली के बस अड्डे पहुंच गये, बस ठीक थी सब को बैठने की जगह मिल गई सामान रखने एवं उतारने में थोड़ी दिक्कत गई। ये दिक्कत तो कम थी कटरा पहुंचने पर एक बड़ी दिक्कत सामने आने वाली थी जिसका मुझे पूर्व अनुमान नहीं रहा था। 45 किलोमीटर के घाट को पूरा करने में पूरंे दो घण्टे लगे, लगभग बारह बजे रात्री हम कटरा के अंधेरे बस स्टेण्ड में 19 सदस्यों एवं सामान के साथ पूरे दो घण्टे खड़े रहे, किसी एक लाज में 19 सदस्यों के रूकने की जगह नहीं मिल पा रही थी वहीं धर्मषाला भी भरी हुई थी, पहले से रिजर्वेषन ना कराने की परेषानियां हम झेल रहे थे। काफी दौड़-भाग के बाद हमें एक ठीक-ठाक लाज में तीन ट्रिªपल बैड रूम मिल सके, वो हमारे लिए नाकाफी थे , लेकिन कोई विकल्प भी नहीं था बच्चों को नींद आ रही थी इसलिए हम लोग किसी प्रकार उसमें एडजेस्ट हो ही गए। थकान के कारण सभी घोड़े बेचकर सोये, आदतन मैं ही सबसे पहले उठा, सुबह के पांच बजे हुए थे लाज की संकरी गली से निकल कर मैं मुख्य सड़क पर आ चुका था, जो दूरी रात में ज्यादा लग रही थी बड़ी सुबह वह मुष्किल से आधा किलामीटर ही निकली मैने एक ठेले पर चाय पी एवं उन पहाड़ों को जी भरकर निहारा जिसपर माता वैश्णोदेवी विराजी हुई थी। कहते हें जब तक माता नहीं बुलाती तब तक कोई उनके दरबार में नहीं जा सकता बिल्कुल सही लगा, मेरा कई बार मन हुआ थ वैश्णोदेवी दर्षन का किंतु किसी ना किसी कारण से टलता ही रहा एवं आज में वैश्णोदेवी के चरणों में बसे कटरा नगर में मौजूद था। जाय वाले ने ही मुझे बता दिया बस अड्डे के बाजु से लगी इमारत में टिकिट खिड़की है , छह बजे के आस पास लोग लाईन में लगना षुरू हो जाते हैं, दूसरी चाय पी कर मैं अपने लाज की ओर जा रहा था। आज सुबह ही एक ऐंसी घटना घटी की एक डेढ़ घण्डे के लिए हम सभी परेषान हो गए किंतु फिर उसे ही याद कर रास्ते भर मजाक करते रहे, वह घटना थी सुबह-सुबह हमारे ससुर जी का रास्ता भटक कर गुम हो जाना।
मैनें दीपक को उठाया ‘‘यार जल्दी लाईन में लग जायेंगे तो टिकिट भी जल्दी मिल जायेगा, हम गरमी षुरू होने के पहले ही चढ़ाई षुरू कर सकते है’’ , दीपक ने समय नहीं लगाया हम दोनों बाहर निकले हमारे पीछे-पीछे ही हमारे ससुर जी भी निकले, लाईन में ज्यादा देर खड़ा होना पड़ता है, इसलिए मेनें उन्हें बताया आप लाईन में नहीं लगो हम दोनों टिकिट ले आयेंगे। ‘‘ चलों में भी टहल लूंगा एवं चाय भी पी लूंगा’’ उनने कहा। दूरी ज्यादा नहीं थी हम दोनों सीधे जाकर लाईन में लग गए, हमारे आगे भी डेढ़ दो सौ लोग लाईन में लगे हुए थे, हमारा नंबर करीब एक घण्टे बाद आ गया। टिकिट लेकर हम बाहर निकले बाहर ही एक टेªवल ऐजण्ट का कार्यालय था वहां हम श्रीनगर के लिए टैक्सी एवं लाॅज बुक करने गए। उन्नीस सदस्यों के कटरा से श्रीनगर ले जाने वापस जम्मू छोड़ने एवं ं दो दिन एवं तीन रात रहने का खर्चा उनने बताया अड़तालीस हजार, किंतु 38 से 40 हजार के बीच सौदा लगभग तय हो गया। हम दोनों लाॅज पहुंचे सब फरती से तैयार हो रहे थे बच्चे तक नहा धो कर तैयार मिले, हम सब  लाज से बाहर निकल आये । तब किसी को खयाल आया पापाजी नहीं दिख रहे हैं। पता चला वो हम दोनों के साथ गये थे फिर वापस नहीं आये तिस पर से किसी का मोबाईल भी काम नहीं कर रहा था। मेरा मोबाईल तो पोस्ट पेड था किंतु वह भी काम नहीं कर रहा था। हम लोगों नेे उन्हें खूब खोजा, मैं समझ चुका था वो लाॅज भूल कर भटक गये हैं पर फिर घूमते फिरते बस स्टेण्ड के पास जरूर आयेंगे, करीब डेढ़ घण्टे की खोज के बाद वे मुझे एक आटो के पास नजर आये एवं क्षंण भर में ही गायब भी हो गये, में सड़क क्रास कर तेजी से भागा वे एक लाज के रिषेप्सन पर रखे फोन के पास खड़े थे। मुझे देख उनके चेहरे पर जो खुषी आयी वह देखते ही बनती थी, वे अपने गुम हो जाने की सूचना रायपुर अपनीे सबसे छोटी बेटी एकता को दे चुके थे।
कटरा के बस अड्डे से वैश्णोदेवी चढ़ाई स्थल तक पहुंचने के लिए आसानी से आॅटो उपलब्ध थे, तीन आटो में बैठ हम सभी आधा घण्टे से भी कम समय में वहां पहुच गये। घोड़े वाले चेक पोस्ट के पहले से ही हमारे पीछे पड़ने लगे, उपर जाने एवं वापस आने का दो हजार तक मांग रहे थे। हम लोग पैदल ही बढ़ते रहे चेक पोस्ट के बाद तो सैंकड़ों घोड़े वाले मौजूद थे एवं वे सभी आ-आ कर चर्चा कर रहे थे। बार्गिंग भी चल रही थी हम लोगों की तरफ से बृजेष ने बारगिंग का दायित्व संभाला , हम लोगों ने निर्णय लिया कि घोड़े से ऊपर जायेंगे एवं पैदल उतरेंगे , मम्मी-पापा वापस भी घोड़े से ही आयेंगे। आठ सौ पचास रूपये में सिर्फ ऊपर ले जाने का सौदा तय हुआ एवं ंहम सभी अलग-अलग घोड़ों पर सवार हो गए। मेरे दोने बेटे सत्यदीप एवं संस्कार एक ही घोड़े पर सवार थे, बादल एवं बिन्नी भी एक ही घोड़े में आ गये।अब सिलसिला षुरू हुआ चढ़ाई का दोनों तरफ दुकाने खड़ी चढ़ाई , पैदल यात्री एवं घुड़सवार एक ही रास्ते पर चल रहे थे। खच्चरों पर सिर्फ सामान उपर से नीचे लाया ले जाया जा रहा था। चढ़ाई की षुरूआत के एक डेढ़ किलोमीटर तक घनी बस्ती थी दोनों तरफ मेवों एवं पूजा सामग्री की दुकानें थी। साथ ही होटल ,ं कोल्ड ड्रिक एवं पानी बाटल की ढेरों दुकानें थी। करीब दो किलोमीटर के बाद दुकाने कुछ कम हो गई फिर भी हर एक किलोमीटर पर रेस्टोरेंट उपलब्ध थे। रास्ते में जगह-जगह टीन षेड भी बने हुए थे। घोड़ों के चारे एवं पानी की व्यवस्था भी अच्छी दिखी। रास्ते के कुछ भाग पर तो टीन के लंबे षेड भी लगे हुए थे। हेलीकाप्टर से भी दर्षन हेतु ऊपर जाया जा सकता है, जाने एवं आने का किराया भी 750 रू ही है लेकिन इसकी पहले से बुकिंग आवष्यक है। हेलीकाप्टर की उड़ान भी अच्छी लग रही थी हम ने उड़ते हेलीकाप्टर को अपने कैमरे में कैद कर लिया। छः किलोमीटर की चढ़ाई के बाद आता है अर्धकुमारी, घोड़े से चढ़ने वाले यहां नहीं रूकते लेकिन पैदल यात्री यहां विश्राम कर ही आगे बढ़ते हैंें। अर्धकुमारी में रूकने एवं खाने की अच्छी व्यवस्था है। जाते समय हम यहां नहीं रूके लेकिन वापसी की पैदल यात्रा में हम सभी ने यहां आधा घण्टा विश्राम किया। कठिन हेयर पिन मोड़ों पर घोड़े का चढ़ना रोमांचक रहा पहले कभी मैनें घोड़े पर बैठ इतनी दूरी तय नहीं की थी, घोड़े सिद्धस्थ थे लेकिन फिर भी कुछ डर तो लग ही रहा था। ‘‘सांझी छत’’ पर हेलीपेड बना था, वहां से हेलीकाप्टर की उड़ान एवं हेण्डिंग भी कम आकर्शक नहीं थी। रास्ते में एक स्थान पर हम सभी एक बार फिर मिले एव ंहम सब ने साथ में चाय नाष्ता लिया। दुर्गम पहाड़ियों के बीच से बने रास्तों से होते हुए हम माता वैश्णोदेवी के दरबार में पहुंच ही गए। अर्धकुमारी से मंदिर तक के लिए इलेक्ट्रिक आटो की भी सुविधा उपलब्ध है, लेकिन घोड़े से चढ़ाई चढ़ने का अलग ही रोमांच है। मंदिर क्षेत्र में भी खाने-पीने की ढेरों दुकाने है, लेकिन यहां पर सामानों का रेट आसमान छूता दिखा , श्रद्धालुओं की मजबूरी का फायदा दुकान वाले उठा रहे थे। रजिस्ट्रेषन टिकिट पर एक काउंटर पर मोहर लगाई गई। यहां जूते एवं चप्पल रखने के लिए लाकर उपलब्ध है, ध्यान रहे यहां से आगे पानी की बाटल या पेन तक ले जाना मना है, इसलिए इन सामग्री को लाॅकर में ही रख देना उचित रहेगा। चेकिंग के बाद हम सभी लाइन में लगे आगे पुनः चेकिगं से गुजरना पड़ा , भीड़ थी किंतु इतनी भी नही की परेषानी होती। बिना किसी धक्का मुक्की के हम लोग देवीदर्षन हेतु गुफा के द्वार तक पहँुच गए। संगमरमर के पत्थरों से सजी इस गुफा के सिरे पर माता वैश्णोदेवी का दर्षन करना एक अनूठा अनुभव रहा। हम सभी ने बड़े ही आराम से दर्षन किये एवं गुफा से बाहर आ बरांडे में हम सभी ने विश्राम किया। यहां से पर्वतों का अद्भुत नजारा दिख रहा था। मेरी माता वैश्णोदेवी के दर्षन की कामना पूरी हो चुकी थी इसका मुझे विष्वास ही नहीं हो रहा था। 

         छोटे बच्चों के साथ भैरंो बाबा के दर्षन करने जाना संभव नहीं था, वहां पैदल एवं घोड़े से जा सकते थे, बृजेष एंव दीपक भेंरोबाबा के दर्षन के लिए निकले , मेरे सास-ससुर को हमने घोड़े उपलब्ध करवा दिये अब हम छोटे-बड़े पंद्रह सदस्य, 14 किलोमीटर से अधिक के पैदल सफर पर रवाना हो रहे थे। बच्चों में असीम उत्साह थ जय माता दी के उद्धोश के साथ ही हमने अपनी डगर पर कदम बढ़ाये, पैदल यात्रा बड़ी ही रोमांचक थी प्रकृति काजो नैसर्गिक सौन्दर्य हम घोड़ों के सफर में नहीं देख सके थे उनको निहारना एक अविस्मरणीय अनुभव था। बादल, सत्यदीप एवं खुद मैं भी कैमरे में सारे दृष्यों को कैद करते जा रहे थे। मेरे छोटे बैटे संस्कार ने दिव्यांष  को करीब आधा किलोमीटर पीठ पर लादकर चलाया, रास्ते में रूककर हमने चाय बिस्किट भी लिए कुछ देर विश्राम भी किया। घोड़ों एवं पैदल यात्रियों के लिए रास्ते में बेरीकेट्स लगा अलग-अलग चलने की व्यवस्था भी थी। सीढ़ियो से भी कई जगह आने जाने की व्यवस्था थी। सीढ़ियों का रास्ता संक्षिप्त जरूर लगा पर इसमेंथकान ज्यादा होती है। रचना को चलने में परेषानी होने लगी, अब उसे थोड़ी-थोड़ी देर में बैठना पड़ रहा था। बच्चे ज्यादा थे एवं में अकेला पुरूश सदस्य दल में बचा था उपर से अंधेरा भी होने लगा था, अंधेरे मेें सामने से एवं पीछे से आने वाले घोड़ों की टक्कर का डर बराबर बना हुआ था, दूरियां बड़ी ही मुष्किल से कट रही थी , बच्चे भी थकने लगे थे रचना अब बड़ी मुष्किल से चल पा रही थी । हमसे गलती हो चुकी थी हमें उसे घोड़े से ही नीचे भेजना था। थकान सभी के अर्धकुमारी के बाद का सफर तय करते समय एक-एक कदम बड़ी ही मुष्किल से उठ रहा था। रास्ते में ही दीपक से फिर मुलाकात हो गई वह भैरो बाबा के दर्षन कर घोड़े से वापस आ रहा था, उसने बताया बृजेष पैदल आ रहा है। ईषा को हमने दीपक के साथ भेज दिया। अब लाईट से जगमगाती दुकानों का सिलसिला षुरू हो चुका था लगा मानों हम नीचे उतर चुके हैं, थकान के मारे बुरा हाल था, रास्ता था कि खतम होने का नाम ही नहीं ले रहा था, मैने एक जूस की दुकान पर रखाी बेंचों पर बैठने का निणय लिया, रचना अभी भी काफी पीछे ही थी, हम सभी नीबू एवं सोड़े की सिकंजी पी रहे थे, रचना भी आ चुकी थी एवं वह भी अब आराम कर रही थी। लगभग एक घण्टे के विश्राम के बाद हम फिर अपने सफर पर निकल पडे़, भीड़ भरे बाजार से गुजरकर आखिरकार हम निकासी द्वार पर आ ही चुके थे । जहां हमारे सास-ससुर जी हमारा इंतजार कर रहे थे, दीपक एवं ईषा भी वहां पहले से ही थे, बृजेष बस नहीं था क्योंकि उसे भैरो बाबा के दर्षन कर पैदल आना था। वापसी में आटो का मिलना कठिन हो गया, आटोवाले मनमाना पैसा मांग रहे थे , तिस पर भी आॅटो नहीं मिल रहे थे। में एवं दीपक आटो खोज रहे थे एवं यहां रचना की तबियत खराब हो गई, मेरी पत्नी कविता उसके पास थी बड़ी मुष्किल से उसे हमने उसी अवस्था में आॅटो में बिठाया एवं लाज पहुचे । रचना को दवाई दी गई अब उसकी तबियत सामान्य थी बाकी सब भी ठीक थे, आष्चर्यजनक रूप से बृजेष हम सभी से पहले लाॅज पहुंच चुके थे एवं स्नान कर आराम कर रहे थे। बच्चे तो आते साथ ही बिना खाना खाये सो गए , मम्मी-पापा ने भी खाना खाने से मना कर दिया, कविता रचना के पास थी। मैं भावना, अर्चना,दीपक और प्रतिभा पास के ही रेस्टोरेण्ट में खाना-खाने गए। खाना अच्छा था पर थकान के कारण किसी से भी ठीक से खाना नहीं खब पाया हम तीन प्लेट खाने की पार्सल तैयार करवा के भी ले आये। अब हम लाॅज में थे एवं मुझे भी नींद आ रही थी।

एक जून की सुबह मैं पांच बजे ं प्रातः कालीन भ्रमण पर निकला हुआ था, सबसे पहले मैने एक ठेले पर चाय पी एवं एस.बी.आई. के ए.टी.एम. की जानकारी प्राप्त की करीब एक-डेड़ किलामीटर के मार्निंग वाक के बाद मेनें एटीएम से पैसा निकाला एवं कटरा की सड़कों पर घूमता हुआ लाॅज पहंुचा। रास्ते में बहुत सारे टेªवल ऐजेण्टों के आफिस थे। हमारे लाॅज का मालिक भी टेªवल एजण्टों के संपर्क में था उसने कल ही मुझे  एवं दीपक से श्रीनगर टूर की बात कर ली थी एवं उन्होनें 42 हजार रूपये में तीन रात एवं दो दिनों का कष्मीर टूर हमें आफर किया। व्यक्ति विष्वसनीय लगे इसलिए हमने सहमति दे दी, मेमेण्ट के समय उन्होनें खुद दो हजार कम कर हमारा टूर 40 हजार में फाइनल कर दिया एवं हमने उन्हें 20 हजार रूपये अग्रिम दिये जिसकी उन्होनें हमे रसीद भी दी। षेश 20 हजार हमें अपने भ्रमण मेें 3 किस्तों में उन्हें देना था । हमारा कटरा से सुबह 8 बजे निकलने का कार्यक्रम था। कटरा के लाज में कराई गई मालिष का उल्लेख ना करूं तो कटरा का भ्रमण पूरा नहीं लगेगा। सुबह के छः बजे वह 18-20 साल का स्मार्ट युवक मुझसे मिला उसने जीन्स-टीषर्ट एवं स्पोर्ट षू पहन रखे थे। थक गये होंगे सर मालिष करवा लें जो मर्जी हो दे देना, मैनें पूंछा पहले बताओ कितना लोगे,  पहले करवा लो साहब फिर जो मर्जी हो दे देना। वैश्णोदेवी की चढ़ाई के कारण पैर तो दुख ही रहे थे उस पर से मेरे सभी साथी अभी भी सो रहे थे। मैने मालिष कराने का निर्णय लिया, उसने मुझे बराण्डे में एक लुंगी बिछा कर लिटाया एवं मालिष षुरू की उसके सिद्धस्थ हाथ सरसों के तेल से मालिष कर रहे थे। मेरी पिंण्डलियों के दर्द को कुछ राहत मिल रही थी। पापाजी भी उठ चुके थे मैनें उनसे भी कहा वो भी तैयार हो गए , उनकी अच्छी मालिष के बाद मेरे छोटे बेटे संस्कार ने मालिष करवाई। एक स्मार्ट नव युवक मालिष के इस व्यवसाय को अपना सकता है, आष्चर्य लगा। मैनें उसे 100 रू दिये उसने 50 रूपये और मांगे मैंने 20रू और दे दिये  वहं राजी खुषी वहां से विदा हुआ। बाजार में भीड़-भाड़ हो चुकी थी हम  सब हल्के चाय नाष्ते के बाद श्रीनगर जाने को तैयार थे साढ़े आठ बच चुके थे, हम अपनी योजना से आधेघण्टे देर से चल रहे थे। लेकिन निकलते-निकलते सुबह के नौ बज ही गये। कुछ त्यौहार था इसलिए हर पांच किलोमीटर पर कष्मीरी रहवासी पानी-सरबत एवं परसाद के दौनें दे रहे थे। कष्मीर में हम लोगों का स्वागत कुछ इस प्रकार होगा हमने कभी सोचा भी नहीं था। हम लोग एक 12 सीटर मिनी बस एवं एक टवेरा में थे। कष्मीर की सुन्दर वादियों की षुरूआत ‘‘पटनीटाप’’ से ही हो जाती है। पटनीटाप में कोणधारी वन दिखने लगे, यहां के सुन्दर गार्डन एवं नजारों ने मन मोह लिया। हम सभी थके हुए थे इसलिए पार्क में ज्यादा घूमने की स्थिति में नहीं थे , लेकिन बच्चों ने यहां भी घुड़सवारी की। मौसम बदलने लगा था ठण्डी हवाओं के झोंके इस बात का अहसास कराने लगे थे कि हम कष्मीर की सुरम्य वादियों में प्रवेष कर रहें हैं, मेरा कवि मन कविता लिखने को आतुर था। हमारा काफिला अपने गंतव्य को रवाना हो चुका था मैं मिनी बस में था, बच्चों ने फिल्मी गीतों की मानों झड़ी ही लगा दी थी। कुछ सदस्य आंखे भी बंद कर रहे थे लेकिन प्राकृति के सुन्दर नजारों को देखने की जाह उन्हें सोने नहीं दे रही थी। चिनाब नदी के किनारे-किनारे मीलों तक का सफर, गहराई में हिलोरे मारती चिनाब एवं उसके किनारे बसी बस्तियां बरबस ध्यान आकर्शित कर रही थी। पहाड़ों एवं घाटी का कठिन जीवन साफ दिखाई दे रहा था, पहाड़ों पर बने कष्मीरी घर, पहाड़ी की चोटी से घाटी का नजारा एवं वहां बने टीन की छत वाले घर बरबस आकर्शित कर रहे थे। कभी-कभी तो आष्चर्य होता था ये पहाड़ की ठलानों पर बने अपने घरों  तक पहुंचते हैसे होंगे। एक डेम के नजारे को हम कभी नहीं भूल सकते, वापसी में हमने इसके ठीक सामने बने रेस्टोरेंट में खाना खाया था। लगभग 3 किलोमीटर लंबी जवाहर टनल का सबको इंतजार था, षाम हो चुकी थी सूरज क्षितिज में जाकर कहीं छुप चुका था , हमारी दोनों गाड़िया ओग-पीछे जवाहर टनल में प्रवेष कर रही थी।
श्रीनगर पहुचते-पहुंचते रात के दस  बच चुके थे , लाॅज पहले से बुक था इसलिए परेषानी नहीं हुई। डल झील के पास स्थित रूमा लाॅज अच्छा निकला, सुन्दर कारपेट से सजे इस लाॅज में  गरम पानी की व्यवस्था के साथ अटेच लेट-बाथ की सुविधा थी। हम सभी को पूरे सामान के साथ अपने-अपने कमरों में जाने में आधे घण्टा से ज्यादा लग गया । समय ज्यादा हो गया था, लाॅज का रेस्टोरेण्ट बंद हो चुका था, लेकिन हमें बहुत ही अच्छा षाकाहारी होटल लाॅज के बगल में ही खुला मिल गया, रात के करीब साढ़े ग्यारह बज रहे थे  फिर भी हमें अच्छा-खासा खाना मिल गया। हम सब सोने जा रहे थे सभी को सुबह का इंतजार था कल हम श्रीनगर एवं उसके आस-पास घूमने जाने वाले थे।

2 जून 2012 की सुबह पांच बजे मेरी आंख खुली, कष्मीर की खबसूरत वादियाँ श्रीनगर के लाॅज की इस खिड़की से मुझे आमंत्रित कर रही थी। मेरे कमरे में मेरे साथ सो रहे सभी बच्चे अभी भी गहरी नींद में थे, मैं तीसरी मंजिल से नीच उतरा और अपने प्रातःकालीन भ्रमण पर निकल पड़ा। दूर-दूर तक फैली पर्वत श्रृंखलाओं  की चोटियों पर जमी बर्फ मुझे अपनी ओर आकर्शित कर रही थी, डल झील के पास ही लगी एक नहर में भी हाउस बोट खड़ी हुई थी, उसी से लगा एक पार्क भी था। मैने पार्क का एक चक्कर लगाया एवं हलकी एक्सरसाईज भी की, वैश्णोदेवी की थकान अब मिट चुकी थी, अनजान सड़कों पर मै आजुबाजू के घरों एवं दुकानों को ध्यान से देखते हुए आगे बढ़ रहा था। एक ठेले पर मैनें चाय पी एवं हिन्दी एवं उर्दू  के स्थानीय समाचार पत्र खरीदे। मुझे हांलाकी उर्दू नहीं आती लेकिन मै जानना चाहता था यहां के उर्दू मीडिया के ख्याल कष्मीर समस्या पर किस प्रकार के है। कटरा से श्रीनगर तक के सफर में जो अमन-चैन मुझे दिखा वह मुझे हमेषा याद रहेगा, सांम्प्रदायिकता तो वहां मुझे लेष मात्र भी नजर नहीं आ रही थी। श्रीनगर वाले पर्यटकों का बड़ा सम्मान करते हैं, सुबह के भ्रमण में मैने कितने ही लोगों से रास्ता पूछा सभी ने अपेक्षित सहयोग दिया। कष्मीर घाटी के मकानों का विषेश आर्कीटेक्ट मुझे आकर्शित कर रहा था। मैं श्रीनगर आते समय बस की खिड़की से भी लगातार बाहर घरों को छतों को देख रहा था एवं केनान के 18 मेगा पिक्सल कमरे से उनके फोटो खींच रहा था, सुन्दर आकर्शक डिजाईन में टीन की चादर से बनी छतें जिनको कि आकर्शक रंगों से पोता गया था। इतना तो तय था भूकंप की पट्टी पर होने के कारण यहां के घर हलकी निर्माण सामग्री से बनाये जाते हैं वहीं बर्फ ना जम सके इस लिए टीन की सीट को ठलवा सेप दे छत बनाई जाती है। मुझे स्लेब वाले घरों दुकान, होटल यहां तक की मल्टी स्टोरी बिल्डिंग पर की छत पर भी लकड़ी का फ्रेम लगा कर टीन कीे आकर्शक छत बनाना श्रीनगर एवं घाटी की विषेशता दिगी। विचारों की श्रृंखला को विराम देते हुए चाय ठेले वाले से एक और चाय मांगी, दूसरी चाय पीते हुए मैने स्थानीय हिन्दी पेपर के मुख्य-मुख्य समाचार पढ़ डाले, मैं जानना चाहता था कि आम कष्मीरी षेश भारत वासियों को किस नजर से देखते हैं, उनके सामान्य व्यवहार से मुझे बड़ा ही संतोश मिला। मैं टहलते हुए वापस अपने लाॅज आ चुका था, मेरे साथी भी उठना षुरू हो गए थे, मैं एक बार सभी कमरों में गया एवं सब के हाल-चाल जाने सब ने आधा घण्टे में तैयार हो जाने का भरोसा दिलाया, साढ़ेआठ-पौने नौ के आस-पास हम सब लाज के बाहर थे, बच्चे कैमरों से फोटो खींचने लगे थे, हमारे दोनो ड्रªाइवर अपने-अपने वाहनों की सफाई कर रहे थे। हम सभी रोमा लाॅज के ठीक बाजू में स्थित एक हाॅटल में आलू के परांठों का आर्डर दे रहे थे, दिनभर घूमना था इसलिए हेवी ब्रेकफास्ट जरूरी था। एक परांठा बीस रूपये का था , साथ में अचार एवं दो प्रकार की सास, दही मांगे जाने पर उसने अमूल दही का हुआ डिब्बा दिया जिसका कि अलग से भुगतान करना था। नास्ता अच्छा था बच्चों ने चाऊमिन का भी लुफ्त उठाया, सभी ने इत्मिनान से एक-एक चाय पी , अब हम आज के श्रीनगर भ्रमण के लिए तैयार थे।  

टवेरा एवं मिनी बस में सवार हो हम सभी श्रीनगर की सड़कों पर निकल चुके थे, हमारा पहला पड़ाव षंकराचार्य मंदिर था। मैनें मिनीबस के ड्राइवर से लाल चैक के विशय में बात कि, ‘‘क्या लाल चैक’’ भी ले जाओगे। वहां भीड़ होती है एवं पार्किगं की समस्या है, अभी नहीं लेकिन आप कहेंगे तब हम वापसी में लाल चैक होते हुए लाॅज आ जायेंगे। मैं उग्रवादी घटनाओं के साक्षी बने उस लाल चैक को करीब से देखना एवं उस समय के दर्द को महसूस करना चाहता था, पर मैनें जिद्द नहीं की क्योंकि सब जल्द से जल्द डलझील में नौका विहार करना चाहते थे। हम सभी डल झाील के पास निकल रहे थे , झील का सुन्दर नजारादेखते ही बनता था। षिकारे एवं हाउसबोट इस नजारे मैं चार चांद लगा रहे थे। हम षंकराचार्य मंदिर जाने के लिए चेक पोस्ट पर रूके , इसी बीच रेलिंग के पास खड़े हो हमने डल झील को जी भर कर निहारा एवं कैमरे में उन स्मृतियों को हमेषा-हमेषा के लिए सुरक्षित कर लिया। षंकराचार्य का मंदिर एक पहाड़ी पर स्थित है, जहां जाने के लिए सकरी सड़क है। मंदिर के पास पार्किंग की सुविधा है, लेकिन जाम लग जाने के कारण हमें लगभग आधा किलोमीटर पहले ही वाहनों से उतरना पड़ गया। मंदिर तक पहुचने के लिए भी खड़ी चढ़ाई थी । सीढ़ियाँ सीधी थी उनमें मोड़ कम ही थे, मंदिर के पास से श्रीनगर का विहंगम दृष्य दिखाई पड़ रहा था, मानों इस पहाड़ी के चारों तरफ श्रीनगर को बसाया गया हो। डलझील किसी नगीने के समान दिखाई दे रही थी। कहते है डलझील की परिसीमा 90 किलोमीटर से भी ज्यादा है।षंकराचार्य का अध्ययन स्थल एक छोटी सी गुफा को देखना अच्छा लगा, पूरे श्रीनगर एवं हिमाच्छादित पर्वत श्रंृखलाओं को इस पहाड़ी से देखना  अद्भुत था। हमारा अगला पड़ाव श्रीनगर के उद्यानों का भ्रमण था, इस कड़ी में हम जा रहे थे ‘‘चष्मे षाही’’। पहाड़ी चष्में (झरने) से निकलते षीतल स्वच्छ पानी से बने कुण्ड के सामने बने इस उद्यान का बड़ा महत्व है, इसका पानी गंगा के समान ही पवित्र माना जाता है, सभी पर्यटक इसका पवित्र पानी पी रहे थे साथ ही अपने परिवार एवं मित्रों के लिए बाॅटलों में इकट्ठा कर ले भी जा रहे थे। झरने के पानी से बनी सुन्दर नहर बाग की षोभा बड़ा रही थी, वहीं बड़े-बड़े बोन्साई बरबस ध्यान खींच रहे थे। यहां कष्मीरी छात्राओं के एक समूह से मिलना एवं उनके साथ फोटो ख्ंिाचाना अच्छा लगा। बच्चों ने उनसे बात-चीत भी की। पार्किंग से लगा बाजार कष्मीरी वस्तुओं एवं खाने पीने के सामानों से अटा पड़ था। हमारा अगला मुकाम था षालीमार बाग , टिकिट कटा कर हम सभी ने बाग में प्रवेष किया, दीपक गाड़ी में ही आराम करना चाह रहे थे इसलिए वे बाहर ही रूक गये। लंबे चैड़े क्षेत्र में फैले इस बाग में पेड़-पौधों की बहुत सा किस्में दिखाई दे रही थी। हमने इस बाग में बहुत इंज्वाय किया, कष्मीरी पोषाक में सभी ने फोटो खिंचवाये, एक पोषाक का फोटोग्राफ के साथ किराया 150 रू था, मैं उनके फोटोग्राफर के साथ खुद भी फोटो खींच रहा था। यहां रायपुर में कार्यरत एक बैंक अधिकारी  के परिवार के साथ मुलाकात हुई, उनके साथ मिलना सुखद रहा, उनके साथ उनकी पत्नी एवं डाॅक्टर बेटी भी साथ थी। बच्चों की धमाचैकड़ी एवं खेल-कूद से मानों बाग में जान आ गई थी, समय की कमी ने हमें वहां से विदा लेने को मजबूर कर दिया अब हमारा अगला पड़ाव था डल झील जिसका सब को बेसब्री से इंतजार था।षालीमार बाग के सामने आ कर हमने कष्मीरी पोषाक में खिंचाए फोटोग्राफ एक दुकान से प्राप्त कर लिए, खाने-पीने की ढेरों दुकानें थी इसलिए हम सब ने कुछ ना कुछ खालेने का निर्णय लिया। मैनें , कविता ,बादल एवं रचना ने खाने की थाली मंगवा ली बाकी लोग डोसा, चाउमिन, पुलाव इत्यादी खा रहे थे।

षालीमार बाग से हम पहुंचे कष्मीरी कपड़ों की एक दुकान पर कपड़े अच्छे किंतु मंहगे थे किसी ने भी खरीदी में विषेश रूची नहीं दिखाई, लेकिन बगल में स्थित मेवे की एक दुकान से सभी ने मेवे जरूर खरीदे, अब हमजा रहे थे डल झील। हमारे लाॅज की तरफ से डलझील जाने का एक और रास्ता था जहां से हमें हमारे गाईड ले कर गए, षिकारा का किराया तय करने के लिए कुछ बातचीत जरूर हुई पर आठ सौ पचास रूपये एक षिकारे की दर से हमने उन्हें किराय पर लिया। समय का कोई बंधन नहीं था हम जब तक चाहते इस नौका विहार का आनंद ले सकते थे। नाव चलाने वाला बहुत ही अच्छा गाईड साबित हुआ उसने डल झील की पूरी जानकारी हमें दी। झील के परले सिरे पर जमीन से लगे हुए हाउस बोट थे जिनके एक दिन का किराया 1500रू से 10,000 रू. तक था, लाईन से लगे हाउस बोट बड़े ही आकर्शक लग रहे थे। हमने निर्णय लिया अगली बार कभी श्रीनगर आये तब हाउस बोट में ही रूकेंगे।  एक बड़ा हाॅटल भी डलझील में षान से खड़ा था उसका बाग बड़ा ही आकर्शक लग रहा था। हमारी बोट के साथ सामान बेचने वाले स्थानीय लोगों की बोट भी चल रही थी। हमने फ्रूट सलाद खाया साथ ही केसर भी खरीदा। तैरता हुआ पूरा का पूरा बाजार डल झील की विषेशता थी, सैकडों आकर्शक दुकानें झील में सजी हुई थी हम लोगों ने भी दुकानों से कुछ खरीददारी की , डलझील के बीचोंबीच था ‘‘नेहरू उद्यान’’ यहां का अलग टिकिट लगा, हम टिकिट कटा कर बाग में पहुचे यहां हमने फोटोग्राफी की साथ ही यहां के वाटर गेम्स का भी आनंद लिया। मैनें एवं बृजेष ने वाटर सर्फिंग भी की। पूरी झील मानों एक नगर के समान थी इसमें जगह-जगह आईलेण्ड पर यहां के रहवासियों के घर थे जहां से ये सिर्फ नाव के द्वारा ही झील से अंदर बाहर आ सकते थे। नाव बनाने का कारखाना भी झील के अंदर ही था, वहीं पानी पर की जाने वाली खेती ने सब से ज्यादा आकर्शित किया, पानी पर पहले तैरने वाली घ्ंाास उगाई जाती है एवं फिर उस पर टमाटर इत्यादी सब्जियों की खेती होती है। अब हमारा षिकारा झील से बाहर की ओर जा रहा था हमने एक तैरते रेस्टोरेंट से काफी ली एवं गरम काफी का आनंद लेते हुए झील को जी भरकर निहारा, मन तो नहीं हो रहा था कि झील से बाहर निकलें पर षाम हो चुकी थी, महिलाओं को खरीदी भी करनी थी। हम षाम टलते-टलते अपने लाॅज पहुंच चुके थे। लाॅज में विश्राम करने का मन नहीं हुआ, मैं अकेला ही लाॅज से निकला षाम के सात से ज्यादा बज चुके थे मै एक बार फिर पैदल ही श्रीनगर की सड़कों पर टहल रहा था, श्रीनगर की जीवन षैली को समझने के लिए 2-3 दिन का समय कम था लेकिन एक जिज्ञासा तो थी ही, श्रीनगर वासियों ने उग्रवाद के साये में बहुत दिन गुजारे थे, अब उनका जीवन षांत एवं उल्लास मय लगा, श्रीनगर के बाग-बगीचों एवं डलझील मे स्थानीय पर्यटकों विषेशकर षालेय विद्यार्थियों की उपस्थिती उत्साहवर्धक लगी। सड़कों पर भी पर्यटक घूमते दिख रहे थे, दुकाने सजी थी लोग खरीददारी कर रहे थे, मेरी धर्म  पत्नी एवं उसकी बहने भी आज इकट्ठी हो पैदल ही पास के बाजार में खरीददारी करने गई थी, एक लंबे वाक के बाद रास्ता पूंछते हुए मैं लाॅज तक पहुंच चुका था, लाज के बाहर ही अन्य साथी भी मिल गए, हमने एक बार फिर उसी हाॅटल में खाना-खाने का निर्णय लिया जिसमें पहले खाना खा चुके थे। आज उसने अच्छा खाना परोसा सभी ने पूरे उल्लास के साथ भोजन का आनंद लिया, कल हमें बड़ी सुबह गुलमर्ग के लिए निकलना था, देर हो जाने पर गुलमर्ग के गोण्डोला का टिकट नहीं मिल पाता है ऐंसी जानकारी हमें बहुत से लोगों से मिल चुकी थी, सभी ने सुबह पांच बजे उठ कर 6.30 बजे तक तैयार हो जाने का निर्णय लिया एवं श्रीनगर में दूसरी रात गुजारने हम सभी अपने-अपने कमरों की और निकल पड़े।
3 जून की सुबह बर्फ पर खेलने एवं दुनिया के सबसे ऊंचाई तक ले जाने वाले गोण्डोला पर बैठने की चाहत में बच्चे एवं बड़े सभी समय से पहले ही तैयार थे। अभी तक लाॅज के बगल का रेस्टोरेण्ट भी नहीं खुला था, सुबह के 7 बजे हमने लाॅज छोड़ दिया एवं गुलमर्ग के लिए निकल पड़े। गुलमर्ग के रास्ते में हमें टिपिकल श्रीनगरी आर्कीटेक्ट से बने सुन्दर घर देखने को मिले, टीन की छतों को बड़े ही करीने से संवारा गया था, हर घर सुन्दरता में दूसरे से टक्कर लेता मालुम पड़ रहा था, रास्ते के ही एक रेस्टोरेंट में हमने चाय बिस्कुट का नास्ता किया। गुलमर्ग की पहाड़ियों पर चढ़ने के पहले ही , हमारी गाड़ियां एक स्थान पर रूकी यहां सभी के कए गरम कपड़े किराये से मिलते हैं, हम सभी के पास पर्याप्त गरम कपड़े थे फिर भी हम सभी ने वहां से अतिरिक्त कपड़े ले ही लिए, साथ में बरफ पर चलने के लिए गम बूट भी दिये गये। एक जोड़ी कपड़े का किराया 150 रू था जिसे हमने अग्रिम भुगतान कर दिया। सुंदर पहाड़ी रास्ते से होते हुए हम गुलमर्ग की बर्फीली वादियों  की ओर जा रहे थे, दूर-दूर तक बर्फ से ढकीं पहाड़ी चोटियां दिखाई दे रही थी। हमें  गुलमर्ग के बसअड्डे पर उतारा गया, पता चला यहां से , एक किलोमीटर या तो पैदल जाना पड़ेगा या घोड़े पर , फिर वहां से पहाड़ी पर जाने वाला रोप वे अर्थात यहां की भाशा में गुलमर्ग गोण्डोला मिलेगा। घोड़ों पर चढने को काई तैयार नहीं था, अतः हम सभी पैदल ही निकल पड़े नीचे अच्छी खासी गर्मी थी उपर से गरम कपड़ों का बोझ। सड़क पक्की थी ,बहुत सी गाड़ियां वहां आ-जा रही थी , पता नहीं हमारे गाड़ी वाले ने हमें एक किलोमीटर से ज्यादा का पैदल मार्च क्यों करा दिया। बहरहाल एक व्यक्ति को एक आईडी पर पांच से ज्यादा टिकट नहीं मिल रहे थे गनीमत थी मेरे पास तकरीबन सभी के आईडी की फोटो कापी थी। हमें टिकिट मिल गये अब हम गोण्डोला राईड के लिए लाइन में लगे थे एक टिकिट 300रू का था। हमारा नम्बर जल्द ही आ गया,  रोमंाचक राईड हमें हरे भरे पर्वतों के बीच से ले जा रही थी। हमने देखा कुछ लोग पगडंडियों से पैदल भी उपर जा रहे थे। मुष्किल से दस मिनिट की इस राईड ने हमें दूसरे गोण्डोला स्टेषन तक पहुचा दिया, यहां से बर्फीली पर्वत श्रृंखलाओं को करीब से देखा जा सकता था किंतु बर्फ अभी भी दूर ही थी, पर्यटकों की लाईन पहाड़ी चैटी तक ले जाने  वाली गोण्डोला राईड के लिए लगी थी। टिकिट के लिए इस लाइन में हमारे आगे, दो-तीन सौे लोग लगे हुए थे। हम भी लाईन में लग गये, दो घण्टे तक लाईन में लगे रहने के बाद भी हमारा नम्बर नहीं आया, गार्ड की ड्यूटी करने वाले कर्मचारी खुलेआम ब्लैक में टिकिट बेच रहे थे जिसे देख कर लाईन में लगे लोगों ने विरोध किया एवं विवाद की स्थिति खड़ी हो गई। 5-6 नवयुवकों का समूह सिर्फ टिकिट की कालाबाजारी में ही लगा था आष्चर्य तो तब हुआ कि उन्हें सुरक्षा कर्मियों का संरक्षण मिला हुआ था, मन खट्टा हो गया। लगा इतनी दूर आकर भी बर्फीली चोटियों  को छुए बिना ही जाना पड़ेगा। घोडे़ वाले भी सक्रिय थे वे नजदीक की बर्फीली पहाड़ियों तक ले जाने का 800 रू मांग रहे थे। भाग्य से हमें दूसरी राईड का टिकिट मिल ही गया एक टिकिट की कीमत 500 रू थी। गजब के उत्साह ने थकान को मिटा दिया। यहां का मौसम गरम तो नहीं था पर ज्यादा ठण्ड भी नहीं थी। बर्फीली पहाड़ी चोटियों तक ले जाने वाले गोण्डोला राईड पर हम सवार हो चुके थे, एक रोमांचक अनुभव हमारा पग-पग पर इंतजार कर रहा था। अब हमारे चारों तरफ बर्फ ही बर्फ थी यका-यक हमें ठण्ड भी लगने लगी थी जैसे-जैसे ऊपर जा रहे थे ठण्ड बढ़ती ही जा रही थी। अब हम गोण्डोला स्टेषन पर उतर रहे थे बर्फीली हवाओं के कारण ठण्ड से हाल बुरा हो गया था। गरम मौसम से पल भर में बर्फीली चोटियों पर आ जाने के कारण हमारा षरीर माहौल से अनुकुलन नहीं कर पा रहा था। जैसे ही हम टीन षेड से बाहर निकले हवाओं की गति और तेज हो गई हम बड़ी ही मुष्किल से बर्फीली पहाड़ियों पर चल पा रहे थे, बर्फ पर खेलने का जब सिलसिला षुरू हुआ तो कुछ ठण्ड से राहत मिली वहीं बीच-बीच में सूर्य देवता के दर्षन हो जाने से हवा भी गरम हो जाती थी। दूर-दूर तक सिर्फ बर्फीली पर्वतमालाओं के अलावा कुछ भी दिखाई नहीं दे पा रहा था, हम इन दृष्यों को अपने कैमरे में सहेज रहे थे। मेरे बेटे संस्कार का ठण्ड के मारे बुरा हाल था, दिव्यांष भी ठण्ड बरदाष्त नहीं कर पा रहा था, सत्यदीप, बादल , बिन्नी और यष खूब खेल रहे थे। मैनें और कविता ने भी बर्फ के गोलों को खूब एक दूसरे की तरफ उछाला। अब समय था वापस गोण्डोला स्टेषन पर जाने का , यहां भी लाईन थी, बर्फीली चोटियों से नीचे का नजारा और भी खूबसूरत दिख रहा था। पहली राईड के बाद हम दूसरी राइड के लिए भी लाईन में लगे थे। आज का मेरा दिन सिर्फ लाइ्रन में लग कर ही जाया हुआ, मुष्किल से एक धण्टे बर्फ पर खेलने के आनंद के लिए हम लोगों को से  चार-पांच घण्टे सिर्फ लाईन में ही खड़ा होना पड़ा । फिर भी हम भाग्यषाली ही थे जो आज बफीर्ली चैटियों तक पहुंच सके वरना तो आधे से ज्यादा पर्यटकों को निराष होकर ही जाना पड़ा। गोण्डोला राईड से हम नीचे आ चुके थे एवं खूबसूरत गोल्फ कोर्स के किनारे-किनारे घूमते हुए बस अड्डे अपनी गाड़ियों की तरफ जा रहे थे। यहां हमने साथ में लाए हुए नास्ते को खाया , आज सुबह के भोजन के लिए समय ही नहीं मिला ,ब्रेक फास्ट भी बिस्किुट एवं मिक्चर इत्यादी का ही होता रहा । आज हमारा श्रीनगर के संक्षिप्त टूर में अंतिम दिन था कल ही सुबह हम जम्मू के लिए निकल रहे थे। हल्का पानी गिरने लेगा था श्रीनगर आते -आते षाम हो गई मेरे कहने मिनी बस एवं टवेरा वाले ड्राइवर हमें लाल चैक से होते हुए लाॅज ले गए, लाॅज पहंुचकर  हमने भोजन कर ही विश्राम करने का निर्णय लिया, सिर्फ सामान इत्यादी को रखने हम लोग लाॅज में अपने -अपने कमरों में पहंुचे। पुनः उसी हाॅटल में हम रात्री भोजन ले रहे थे, अब तो वहां के वेटर भी हम सभी को पहचानने लगे थे। हमें सुबह जल्दी निकलना था इसलिए आज रात्री ही सामान पेक करना जरूरी था, गुलमर्ग की चर्चा एवं खाना खाते समय भी जारी रही , सभी सुबह जल्द तैयार होने को तैयार थे, श्रीनगर से हमारा अगला पड़ाव था अम्रतसर।
4 जून की सुबह जल्दी उठपाना संभव नहीं हो पा रहा था, मैं अपनी आदत के मुताबिक 5 बजे उठ चुका था, एक बार फिर मैं श्रीनगर की सड़कों पर सुबह-सुबह घूमना चाह रहा था। आठ बजे तक ही सब तैयार हो पाये, हमारी मिनी बस का एक टायर कच्ची मिट्टी में फंस चुका था, तिस पर वह टायर पंचर भी था। दोनों ड्राइवर मिनी बस को निकालने का प्रयास कर रहे थे, उन्हें टोचन के लिए गाड़ी लानी पड़ी ,गनीमत थी उसी टेªवल ऐजंेसी की एक बस मिल गई जिसने टोचन कर हमारी मिनी बस को बाहर निकाला , फिर टायर बदलने का काम षुरू हुआ, इस सब में सुबह 10 से ज्यादा बज चुके थे। इसी बीच हमने आलू के परांठों का हेवी ब्रेकफास्ट कर लिया था, एव ंहम सभी श्रीनगर से विदाई  ले रहे थे, यहां की मधुर स्मृतियां हमारे जहन में हमेषा बनी रहेंगी ऐसा मुझे विष्वास था। श्रीनगर से जम्मू के रास्ते में हमारी दोनों गाडियाँ अलग-अलग ही चलीं टवेरा के ड्रायवर की गलती के कारण दोनों गाड़ियों के साथियों की मुलाकात फिर सीधे जम्मू में ही हो सकी। श्रीनगर से निकलते ही मिनीबस के ड्राइवर ने टायर का पंचर बनवाया जो कि जरूरी था इसी बीच टवेरा के ड्रायवर ने अपनी गाड़ी नहीं रोकी एवं वह हमसे काफी आगे निकल गया, रास्ते भर हम सभी एक दूसरे की चिंता करते रहे। सफर षांति से गुजरा सभी षांत थे एवं आराम के मूड़ में थे इसलिए अधिकांष सफर में आंखे मूंदे ही बैठे रहे। पहली बार दोनों गाड़ियों के मुसाफिरों ने अलग-अलग जगह खाना खाया। हमने एक सुंदर डेम के सामने बने हाॅटल में वहां का स्पेषल राजमा-चांवल खाया , साथ ही डेम का सुंदर नजारा भी देखा,मेरे दोनों बेटे टवेरा में थे इसलिए खाने में भी विषेश मजा नहीं आया। जम्मू रूकने का कार्यक्रम हमारा नहीं था, जम्मू के बस अड्डे पर हमें अमृतसर जाने वाली बस लगी मिली, लेकिन थकान से मेरे बेटे संस्कार एवं ई्रषा को उल्टी होने लगी थी, लगातार सफर की थकान अब साफ दिखाई देने लगी थी। रास्ते में विषेश परेषानी नहीं गई , पंजाब में  प्रवेष करने के साथ ही हमारे मोबाईल काम करने लगे, करीब साढ़े ग्यारह बजे मैनें घर फोन कर अपने सकुषल होने की सूचना दी। उसी बस वाले ने हमें अमृतसर के दीपसिंह गुरूद्वारे के सामने उतारने  का 500 रू अतिरिक्त लिया, गुरूद्वारे के सामने ही चार मंजिला एक बड़ी धरमषाला थी जिसमें सुबह के 6 बजे हमें एक बड़ा हाॅल मिल गया जिसमें लेट-बाथ की अच्छी सुविधा थी। 
5 एवं 6 जून हमने स्वर्णमंदिर के दर्षन एवं अमृतसर भ्रमण के लिए नियत किया था, हमारी वापसी कीे ट्रेन हमें 7 जून की सुबह 8.30 बजे जालंधर केंट से पकड़नी थी जो कि अमृतसर से 100 किलोमीटर की दूरी पर था। हमें 6 जून की संध्या अमृतसर से निकलकर रात्री विश्राम जालंधर में ही करना था। रात किसी की नींद  पूरी नहीं हुई थी, अमृतसर दो दिनं रूकना था इसलिए जल्दबाजी भी नहीं थी इसलिए सभी  दो-तीन घण्टों के लिए सो गए, आराम से तैयार हम 10 बजे के बाद ही धरमषाला से निकले। बाहर ही एक अच्छी चाय की दुकान थी  जहां हमने चाय एवं बेकरी के बिस्किट खाये एवं अमृतसर की संकरी गलियों से होते हुए पैदल ही स्वर्णमंदिर की तरफ निकल पड़े। चंद्रधर षर्मागुलेरी की कहानी ‘‘उसने कहा था’’ का अमृतसर मुझे आज भी नजर आ रहा था, बस अब तांगेवालों की जगह आटोवालों ने ले ली थी , फिर सरल एवं सहयोगी जनों ने दिल जीत लिया था। गरमी ज्यादा थी करीब दो किलोमीटर की पैदल यात्रा के बाद हम स्वर्णमंदिर के द्वार पर थे। विषाल परिसर में फैले इस मंदिर की व्यवस्था देखते ही बनती थी, इतनी भीड़ के बाद भी किसी प्रकार की धक्का मुक्की यहां बिल्कुल नहीं दिखी। हमने एक काउंटर से निःषुल्क किताबें भी प्राप्त की, एक किताब थी श्री तेजा सिंह लिखित ‘‘गुरू नानक एण्ड हिस मिषन’’ एवं दूसरी थी बलविंदर सिंह जौड़ासिंधा लिखित ‘‘सरहिंद फतह का नायक बाबा बंदा सिंह बहादुर’’। पवित्र सरोबर के बीचोंबीच स्थित स्वर्ण मंदिर में गुरूग्रथ साहिब के दर्षन के लिए लंबीलाइन थी पर व्यवस्था इतनी अच्छी थी कि दर्षन में जरा भी परेषानी नहीं आयी। दर्षन के बाद हमने लंगर में भंडारा खाया, लंगर की व्यवस्था भी अभूतपूर्व थी प्रतिदिन हजारों लोगों का खाना परोसा जाता था वह भी बगैर किसी परेषानी के, स्वयंसेवकों ने सारी व्यवस्था अच्छे से संभाली हुई थी। गर्मी बहुत थी , यात्रा की थकान भी थी इसलिए हम सभी धर्मषाला की ओर चल पड़े। बृजेष , दीपक एवं पापाजी बाघा बार्डर जा रहे थे, मेरा इरादा कुछ विश्राम के बाद अमृतसर की गलियों में घूमने का था। रात का भोजन हमने पास के ही एक हाॅटल में किया। इस प्रकार हमारा अमृतसर का पहला दिन पूरा हुआ कल हमें अन्य गुरूद्वारे एवं मंदिर घूमने थे। मेरा इरादा किताब की दुकानों से कुछ किताबें खरीदनें का भी था।
6 जून की सुबह सभी आराम से उठे, लेकिन मैंें सुबह पांच बजे ही उठ गया था,जल्दी से स्नान कर मैं बड़ी सुबह ‘‘दीपसिंह गुरूद्वारे’’ में दर्षन के लिए चला गया, सुबह-सुबह गुरूद्वारे जाना मुझे बड़ा अच्छा लगा। महिलाएं खरीदादरी करना चाहती थी , साथ ही उन्हें कुछ और मंदिर भी जाना था। बच्चे धरमषाला में ही अपने मनोरंजन में व्यस्त थे। महिलाओं के लिए हमने आॅटो की व्यवस्था कर दी, बच्चों ने धरमषाला में ही नास्ता कर लिया। ब्रजेष, दीपक एवं पापाजी साथ ही सेविंग कराने निकले एवं तीन घण्टे बाद वापस आये। मैनें पुलिस के एक अधिकारी से किसी अच्छी किताब दुकान का पता पूंछा उन्होनें मुझे हालबाजार  के आजाद बुक डिपो का नाम सुझाया। मैं अम्रतसर के लेखकों की कुछ किताबे खरीदना चाहता था। रिक्षा वाला बड़ा ही भला व्यक्ति निकला उसने मुझसे जाने आने के 40 रू लिए । अम्रतसर की गलियों से निकलकर हम अब चैड़ी सड़को पर आ चुके थे , हालबाजार में किताब की बहुत सी दुकाने थी पर सभी मुझे नामी लेखकों की किताबें ही दिखा रहे थे। आजाद बुक डिपो में मुझे अम्रतसर के ही कुछ लेखकों की अच्छी किताबें मिली। श्री मनमोहन  जी का 1993 में निकला कविता संग्रह ‘‘मेरे में चांदनी’’, कमलेष षर्मा जो कि साऊथ हाल लंदन में रहती हैं का कविता संग्रह ‘‘साधना’’ एवं पुश्पा षर्मा का कविता संग्रह ‘‘समाज के कीड़े’’ मैनें खरीदे। पुश्पा जी से मेरी फोन पर बात भी हुई एवं मेनें उनसे अमृतसर की साहित्यक गतिविधियों की जानकारी ली एवं अपने नगर जगदलपुर की साहित्यिक गतिविधियों को उनके साथ साझा भी किया। धरमषाला आते आते दोपहर के दो बज चुके थे, जालंधर के लिए बसों की जानकारी हम सुबह ही पता लगा चुके थे। बच्चे मेरा इंतजार कर रहे थे, मैं उन्हें भोजन के लिए पास के एक हाॅटल में ले गया, हमारे वापस आने के कुछ ही देर बाद धीरे-धीरे सभी इकट्ठे होने लगे, अब हमे अपना सामान बांधना था। हमारा अगला पड़ाव था जालंधर। हमें जालंधर जाने के लिए एक ए.सी. बस मिल गई , बस आरामदायक थी , बच्चे एवं महिलाएं सामने बैठे थे हमलोग पीछे बैठे हुए थे, बच्चों ने गानों की झड़ी ही लगा दी एंसा लगने लगा मानों पूरी बस ही टूरिस्ट बस बन गई हो, दो घण्टे के इस आराम दायक सफर के बाद हम जालंधर केण्ट रेलवेस्टेष पहुच चुके थे। टेªन अगले दिन सुबह की ही थी इसलिए हमने प्लेटफार्म के वेटिंग रूम में ही रात गुजारने का निर्णय लिया, स्टेषन पर भीड़-भाड़ नहीं थी इसलिए रात अच्छी गुजरी पास के ही एक छोटे से हाॅटल में खाना खाया साथ ही अगले दिन सुबह के खाने के लिए आलू के परांठे एवं दही का आर्डर भी दे दिया, अगले दिन  ट्रेन रवाना होन के आधा धण्टा पहले ही हाॅटल वाले ने हमें हमारे भोजन का पार्सल उपलब्ध करवा दिया। अब 7 जून की सुबह साढ़ेआठ बजे हमें इंतजार था जम्मू तवी से चलकर दुर्ग जाने वाली सुपर फास्ट ट्रेन का।  प्लेटफार्म पर बोगियों की स्थिति दिखाने वाले डिस्प्ले की व्यवस्था नहीं थी अतः अंदाज लगा कर प्लेटफार्म पर खड़े होना था। हमने प्लेटफार्म पर ही नास्ता किया, एक बुक स्टाल से मैनें समाचर पत्र एवं मुन्षी प्रेमचन्द की अमर कहानियों की एक किताब खरीदी। ट्रेन समय पर ही आयी हमें बैठने में भी कोई परेषानी नहीं हुई, हमारी यात्रा अब अंतिम चरण में थी, रात को सब प्लेटफार्म पर ही सोये थे इसलिए किसी की भी नींद पूरी नहीं हो पायी थी, थोड़ी ही देर में सब सौ चुके थे। मेरे जिस मित्र से मैं आगरा एवं चक्की बैंक में जाते समय नहीं मिल पाया था, वह आगरा के स्टेषन पर मुझसे एवं कविता से बड़ी ही आत्मियता से मिला, उसके हाथ में हमारे लिए आगरे के पेठे का एक बड़ा डिब्बा भी था, हम दोनों ने सिर्फ फोन पर बात की थी पर हमने स्टेषन की भीड़ में भी एक दूसरे को आसानी से पहचान लिया। अर्चना षहडोल में उतर गई अब हमारा काफिला कम होने लगा था, बिलासपुर में भावना-बृजेष एवं उनका परिवार उतर गया, षेश हम सभी रायपुर में उतरे, एकता एवं सतीष हम लोगों का इंतजार कर रहे थे।  यहां से रचना को दूसरे दिन भिलाई जाना है, मैं उसी दिन षाम को सपरिवार जगदलपुर के लिए रवाना हुआ, दीपक एवं प्रतिभा भी दूसरे ही दिन गीदम रवाना हो गए। इस प्रकार श्रीनगर, वैश्णोदेवी एवं अमृतसर की यादों को समेटे हमारी यह यात्रा सुबह-सुबह जगदलपुर आ कर अपने मुकाम पर पहुंच गई।