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अबूझ...अबूझमाड़..........
अब मैं नहीं रहा अबूझ
पहेलियों की तरह
कठिन प्रष्नों का पुलिन्दा
गुंजती है ढोल-नगाड़ों
और गीतों से
मेरी हर शाम
घोटुल में
चेलिक-मोटियारी
के नृत्य मेरा जीवन है
मेरी संस्कृति मेरी धरोहर है
अब भी मेरी हवाओं में
शांति है , मिठास है
अब भी मुझे बारूद की गंध अच्छी नहीं लगती
लहलहाते वन, कल-कल करते झरने निष्छल निष्कपट आदिवासी जन
मेरी जीवन है
अब लोग मुझे बुझ रहे हैं
अब नहीं रहा मैं अबूझ...अबूझमाड़
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नारायणपुर.......
उबड़-खाबड़ रास्ते
घने वन
गलियां की आवाजें
बमों के धमाके
मौत से सन्नाटे में
बन रही सड़कें, पुल-पुलिए और स्कूल
सूरज की रोषनी
प्रति दिन बन कर आती है
आषाओं की पहली किरण
विकास के पथ पर
चलेंगे हम चाहे जितनी आएं बाधाएं
लांघ लेंगे हम ऊँचे - ऊँचे अवरोधों को
बढ़ चले ये कदम
ना रूकेंगे अब
अब ना रहेगा
अबूझ... अबूझमाड़
अब ना रहेगा कोई
अनपढ़ और अषिक्षित किसान
नारायणपुर की मढ़यी
फिर सजेगी
फिर होगा
जीवन उल्लास
बंद पड़े घोटुल
फिर होंगे आबाद
चैलिक और मोटियारी
फिर झूमेंगे साथ-साथ
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