दशहरा पर्व राजीव रंजन प्रसाद के साथ [संस्मरणात्मक आलेख] -- शरद चन्द्र गौड़
बस्तर दशहरे को बचपन से देखता आ रहा हूँ, मुझे याद है जब हम बस्तर आये थे तब मैं पाँचवीं कक्षा मैं पढ़ा करता था। जगदलपुर की मेन रोड पर ‘सुन्दर किराना दुकान’ के ऊपर हम लोग भाड़े पर रहा करते थे। सामने था स्टेट बैंक, उसकी बगल में बीरबल होटल एवं होटल के ऊपर ही चच्चा-चच्ची रहा करते थे। चच्चा तो पहले ही गुजर गये, दो दिन हुए चच्ची भी ने भी विदा ले ली, असगर अली जी के इस परिवार के सदस्यों के साथ हम लोगों का एक परिवार सा संबंध रहा। वहीं बीरबल होटल के बगल का खाली पड़ा स्थान नीलम होटल की याद दिलाता है। हमारे घर के बाजू में सराफ जी की सोने-चांदी की दुकान हुआ करती थी अब वे क्वालीटी लेदर के नाम से नामी जूते-चप्पल की दुकान चलाते है, उन्हीं के बाजू में अनिल मथरानी का जनता होटल जहाँ हम लोग हाफ चाय पी कर दो घण्टे बैठा करते थे अब खाली प्लाट में बदल गया है। उसी लाईन मैं प्रताप भैया भी रहते हैं जो कि एक ख्याती प्राप्त वकील हैं, उन्हीं के सामने ध्रुवनारायण पाण्डे जी जोकि नोटरी हैं। यही वह मेन रोड है जिस पर बस्तर दशहरे के ‘‘बाहर रहनी’’ का रथ अपनी लम्बी यात्रा पर आदिवासी समुदाय द्वारा खींच कर ‘कोम्हड़ाकोट’ ले जाया जाता है। रथ चोरी की परम्परा में सिर्फ बास्तानार के माड़िया ही शामिल होते हैं, दूसरे दिन रथ वापिसी पर हजारों की भीड़ के बीच सभी आदिवासी समुदाय के लोग रथ खींचते हैं।
दशहरे की रात बस्तर दशहरे पर बना नया रथ प्रथम बार चलता है (शेष दिनों पुराने रथ की परिक्रमा होती है) गोल बाजार की परिक्रमा कर दंतेश्वरी मंदिर के सिंह द्वार पर आ खड़ा हो जाता है । हजारों या कहें लाखों श्रद्धालू, पर्यटक , इतिहास एवं संस्कृति में रूचि रखने वाले लोग अपने-अपने एंगल से इसे देखने एकत्रित होते हैं । 10 साल की उम्र से इसे देखना शुरू किया मैनें, तब से लगातार इसे देख रहा हूँ, वही भीड़, वही उत्साह, वही परम्पराओं का निर्वहन । सभ्यता की कसौटी पर पराम्पराओं की बली नहीं चढ़ाई जा सकती, यह तो कोई ’जापान’ वासियों से पूँछे जो कि एक विकसित सभ्यता के साथ अपनी सांस्कृतिक विरासतों को संजोकर रखे हुए हैं।
’राजीव रंजन’ जी के साथ इस साल बस्तर दशहरे को देखने का एक नया ’एंगल’ मुझे मिला । ’बस्तर एक खोज’ को लिखने के पूर्व मैनें कई दशहरे पर्यटक के एंगल से देखे थे, मैं हमेशा यही सोचा करता था वही लिखूँ जो एक पर्यटक चाहता है, मैनें सैंकड़ों पर्यटकों के साथ साक्षत्कार किया, जगदलपुर में भी एवं चित्रकोट, तीरथगढ़ जाकर भी । मुझे यही लगा ’पर्यटकों’ को संक्षिप्त किंतु प्रमाणित जानकारी दी जानी चाहिए, इसी चाह नें मुझे बस्तर पर रचना लिखने की प्रेरणा दी।
’राजीव रंजन’ जी ने जब मुझे फोन पर कहा की वे मेरे साथ बस्तर दषहरा देखेंगे, तभी मुझे अहसास हो गया था, कि एक नये एंगल से हम बस्तर दशहरे को देखने जा रहे हैं, मुझे पता था राजीव जी अपने उपन्यास के माध्यम से बस्तर के इतिहास को जीवित करने वाले हैं एवं मैं एक महत्वपूर्ण रचना का साक्ष्य बनने जा रहा हूँ। मुझे ये भी पता था आगामी 05 दिन मुझे सिर्फ और सिर्फ इतिहास कार की भूमिका में रहना होगा । मैं विज्ञान का विद्यार्थी हूँ इतिहास कार नहीं , ना ही मैंने ऐसा कोई षौध ही किया जो मुझे इतिहास कार बना दे, हाँ इतिहास पढ़ा जरूर है, डा.के.के.झा एवं लाला जगदलपुरी जी से सतत् संपर्क ज्ञान तो बढा़ता ही है , हम दोनों उनसे भी मिलने जा रहे हैं ।
काकतीय राजवंश (भंज वंश कहना उचित होगा) के परंम्परागत् उतराधिकारी ’कमलदेव’ से राजशी पोषाक में मिलना इतिहास को पुनः जीवित करने जैसा लगा पर क्या इतिहास में जिया जा सकता है ? एतिहासिक पात्रों का मंचन मुझे संभव लगता है, फिल्मों के माध्यम से भी इतिहास के जीवांत दृष्य दिखाये जा सकते हैं। लेकिन बस्तर के राजमहल में परंपरागत उत्तराधिकारी ’कमलदेव’ से मिलना मानों एसा लगा कि हम अभी भी राजवंश की खुमारी से मुक्त नहीं हो पाये है। एशवर्यशाली सभा कक्ष, दीवालों पर लगे वंशजों के बड़े-बड़े चित्र, जंगली भैंस एवं बारहसिंगे के विषाल काय सींग, अन्तिम बस्तर नरेष प्रवीर चन्द्र भंजदेव की प्रकाश से नहाई हाथ से बनी पेंटिग, तीन बड़े राजसी आसन, जिसके मध्य में बैठे ’कमलदेव’ एवं जमीन पर रखी थाली जिसमें रखे हैं रूपये-चिल्हर इत्यादि ।
रायपुर से आयी एक महिला पर्यटक राजा जी से बतिया रही थीं, आदिवासी समूदाय बारी-बारी से बिना ’राजन’ से बात किये, पाँव छू-छू कर कुछ रूपये या पैसे जो उनकी परिस्थति है उस अनुसार थाली में डाल रहें थे, उनकी राजन से बात करने की चाहत नहीं थी वह तो सिर्फ ’राजभक्ति’ से बंधे थे। राजन का गौरवर्ण चेहरा राजकीय पोषाक, लम्बे-लम्बे बाल। राजीव ने मुझसे कहा हमारी बारी कब आयेगी, फोटो खींचते हुऐ मैंने कहा जाकर बात करना शुरू कर दो नहीं तो बारी तो कभी नहीं आयेगी । राजीव रंजन जी ने राजन् कमलदेव से बात करना आरंभ किया, वो उनका दो मिनट का इंटरव्यू लेना चाहते थे ।
राजा ने समय के कमी का बाहना किया, बात-चीत तो 20 से 25 मिनिट हो गई, लेकिन दो मिनिट का साक्षात्कार संभव नहीं हो पाया। रायपुर से आई पर्यटक रेखा जी जिनका बाहर आने पर हमने नाम जाना, हमारे साथ ही बाहर निकली । हम राजमहल के बाहर के हिस्से में भी साथ ही घूमने गयें, उस हिस्से में एक निजी नर्सिंग कालेज संचालित होता है।
राजीव रंजन जी के बातों का सूत्र अपने हाथों में लेते हुए कहा दिल्ली में बस्तर विषेषज्ञों की बाड़ सी आ गई है, दो दिन बस्तर घूमकर बने बस्तर विषेषज्ञ बस्तर की समाजिक आर्थिक विरासत के ट्रस्टी बन गये हैं। मैंने कहा क्या करें हम बस्तर के रचनाकार जब अपनी बातों को दिल्ली के मंच पर नहीं रखेंगे, तब कोई तो यह कार्य करेगा ही, फिर भी यह तो कहूँगा ही बस्तर पर लिखना है तो बस्तर में आकर रहें यहाँ के जीवन एवं समस्या को समझें नहीं बल्की आत्मषात करें फिर लिखें। वेरियर एल्विन ने आदिवासी संस्कृति को समझने के लिए करंजिया में आश्रम बनाया, आदिवासियों के बीच वे रहे एवं उनकी सेवा की फिर कहीं जाकर अपनी अमर रचनाओं का सृजन किया।
बड़े-बड़े बुद्धीजीवी जिनका बस्तर से कोई सरोकार नहीं, पर्यावरण एवं संस्कृति के ठेकेदार बन बस्तर के विकास में रोड़ा अटका रहें हैं । सिर्फ संस्कृति की रक्षा एवं पर्यावरण संरक्षण को आधार बना बस्तर को विकास की मुख्यधारा से पृथक नहीं रखा जा सकता । प्रो.यशपाल जैसे विद्वान जिनकों पढ़कर हम बड़े हुए हैं जब बस्तर आकर बस्तर के विकास को रोकने का माध्यम बनते हैं तब दुख तो होता ही है। अरबों रूपये के लोह अयस्क के खनन के बाद भी बस्तर वासियों को लिए ‘हीराकुण्ड’ एवं ‘समलेष्वरी’ टेªन के लिए आंदोलन करना पड़ रहा है। जगदलपुर से रायपुर रेललाईन तो शायद कभी नहीं बन पायेगी। मैं बस्तर के इतिहास, संस्कृति, पर्यटक पर अक्सर लिखा करता हूँ, फिर भी सांस्कृतिक धरोहर के नाम पर विकास को अवरूद्ध करने के पक्ष में नहीं हूँ। विकास एवं सांस्कृतिक विरासत का संरक्षण विरूद्वार्थी षब्द नहीं है यह तो स्वीकार करना ही होगा फिर हम क्यों कर इनका एक दूसरे का विरोधी बनाने पर तुले हुए हैं, सांस्कृतिक एवं एतिहासिक विरासत भी विकास का माध्यम बन सकती है। औद्योगिक विकास में सामाजिक पक्षों की उपेक्षा संभव नहीं है। औद्योगिकीकरण वाकई समाज के विकास के लिए हो तब उसका विरोध समाज कभी नहीं करेगा । क्या ऐसा हो रहा है ? बस्तर दशहरा पर्व को देखने हर वर्ष हजारों पर्यटक आते हैं किन्तु स्थानीय समुदाय को बस्तर पर्यटन से लाभ होता दिखाई नहीं पड़ता, इन को पर्यटन उद्योग से जोड़ा जाना जरूरी है ताकि उद्योगों का लाभ पूंजिपति वर्ग के साथ उन्हें भी मिल सकें।
1876 में भेरम देव के शासन काल से प्रारंभ ‘‘मुरिया दरबार’’ के साथ बस्तर दशहरे का समापन होता है । आदिवासी समूदायों के असंतोष को शांत करने के लिए इसकी शुरूवात की गई थी, राजतंत्र के कुछ नजदीकी अधिकारियों से आदिवासियों की नाराजगी ने उन्हें बलवा करने को प्रेरित कर दिया परिणाम स्वरूप आरापुर गोली काण्ड हुआ, एवं आदिवासियों ने दो माह तक जगदलपुर की घेरा बन्दी कर दी तब से दषहरे के अवसर पर ‘‘मुरिया दरबार’’ दरबार का आयोजन किया जाता है। अब बस्तर की इस परम्परागत संसद् में मूख्यमंत्री, सांसद, विधायक, महापौर सहित अन्य नेता एवं प्रशासनिक अधिकारी शामिल होतें है। अब तो इस खुली संसद् का उपयोग महज खाना पूर्ती के लिए ही किया जाता है ।
अपने एतिहासिक दशहरे, जैवविवधता एवं जलप्रपातों के लिए जाना जाने वाला बस्तर अब लाल आतंक के साये में सिसकियाँ ले रहा है। अब तो लोग बस्तर को सिर्फ नक्सल प्रभावित अंचल के रूप में ही जानते हैं...................