Sunday, November 21, 2010

कविता

कुम्हार का घडा
आज मैने घडा बनाया
घूमते हुए चाक पर
गीली मिट्टी को चढ़ा
अपनी हथेलियों और
अंगुलियों से सहेजकर

चाक पर चढ़ी
मेरे हाथों से घूमती मिट्टी
मुझ से पूछ रही थी
मेरा क्या बनाओगे
जो भी बनाओं
घड़ा या सुराही
दिया या ढक्कन
बस बेडौल नहीं बनाना

घबराहट में वह
इधर-उधर गिर जाती
और ताकती
बूढ़े कुम्हार की ओर
ये तुमने
किसे बिठा दिया चॉक पर
मेरा रूप बनाने
नौसीखिये हाथों में
ढलती मिट्टी
चिन्तित है अपने भविश्य पर
मैनें भी देखा
बूढ़े कुम्हार की ओर आस से
वह मेरी मंशा समझ गया
और उसने अपना हाथ लगा
सम्हाला मिट्टी को चॉक पर
मिट्टी में भी जीने
की आस बंधी
और संभल गयी वह चॉक पर

एक सुन्दर सा घड़ा बन गया
आज मेरे हाथ से
धूमते हुए चाक पर।

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